Viklangon ke prati sakaratmak rawaiya apnayen (on International Day of Persons with Disabilities- 3rd December) - सुस्वागतम्
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Viklangon ke prati sakaratmak rawaiya apnayen (on International Day of Persons with Disabilities- 3rd December)

(अंतर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस- 3 दिसंबर के अवसर पर)
विकलांगों के प्रति सकारात्मक रवैया अपनायें
निर्भय कर्ण
विकलांगता एक ऐसा शब्द है जो किसी व्यक्ति के शारीरिक, मानसिक व बौद्धिक विकास में किसी प्रकार की कमी को
दर्शाता है। इससे  पीड़ित व्यक्तियों को कई नामों से पुकारा जाता है जैसे कि विकलांग, अक्षम, अपंग, अशक्त, आदि। विकलांग व्यक्तियों के साथ हो रहे पक्षपात, भेदभाव व अन्याय को समाप्त करने के लिए ही प्रतिवर्ष 3 दिसंबर को अंतर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस मनाया जाता है। यह दिवस शारीरिक रूप से अक्षम लोगों को देश की मुख्यधारा में लाने के लिए प्रेरित करता है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 3 दिसंबर, 1991 से प्रतिवर्ष अंतर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस को मनाने की स्वीकृति प्रदान की थी। 
पूरी दुनिया में जहां-तहां विकलांगों को देखा जा सकता है। विकलांगों की संख्या के बारे में यूनिसेफका मानना है कि दुनियाभर में विश्व की कुल आबादी का लगभग दस फीसदी लोग विकलांगता के शिकार हैं जिसमें अधिकतर युवा हैं। भारत में ही 10 करोड़ से अधिक लोगों के विकलांग होने का अनुमान है। कोई जन्मजात विकलांग होता है तो कोई दुर्घटनावश विकलांगता का शिकार बन जाता है तो किसी को बीमारी के बाद विकलांगता आ जाती है।
नेपाल हो या भारत, पाकिस्तान हो या श्रीलंका या चीन, सभी जगह विकलांगता की स्थितियों को बखूबी समझा जा सकता है। नेपाल में प्राकृतिक आपदा की वजह से ही सैकड़ों लोग प्रतिवर्ष विकलांग हो जाते हैं और इलाज की समुचित व्यवस्था नहीं होने की वजह से विकलांगों की संख्या में और भी इजाफा होता है। यदि कहीं इलाज की सुविधा है भी तो गरीबी उसे इलाज करने नहीं देती। यह सभी बखूबी जानते हैं कि नेपाल एक गरीब देश है जो कि पहाड़ों से घिरा हुआ है। ऐसे में प्राकृतिक आपदा और गरीबी की मार विकलांगता को और भी भयावह बना देती है। कमोबेश यही स्थिति पूरी दुनिया का है। यदि आप गरीब हैं तो चाहे इलाज का सुविधा हो या न हो, किसी भी प्रकार की दुघर्टना होने पर उसे विकलांगता की आगोश में समाना ही पड़ता है। यदि कोई एक बार विकलांग हो जाए तो फिर उस व्यक्ति की पूरी जिंदगी निराशा के भंवर में घिर जाता है। ऐसे में महिलाओं का विकलांग होना किसी अभिशाप से कम नहीं होता। पुरुष के अपेक्षा विकलांग महिलाओं को कहीं ज्यादा कष्ट भोगना पड़ जाता है। लेकिन जब उसका एक बार हौसला व हिम्मत बढ़ा दिया जाए तो विकलांग व्यक्ति इतना परिपक्व हो जाता है कि वह अपने आप को बिल्कुल ही अक्षम नहीं समझता जो कि एक सकारात्मक व प्रशंसनीय है। ऐसे हजारों-लाखों लोग हैं जो कभी अपने आप को विकलांग नहीं समझते क्योंकि उसका हौसला इतना बुलंद होता है कि अपने ऊपर विकलांगता को कभी हावी होने ही नहीं देता। ये स्वयं को कभी लाचार नहीं मानते। वे बस यही चाहते हैं कि उन्हें अक्षम न माना जाए। कुछ ऐसा ही अर्जून पुरस्कार से नवाजी जा चुकी भारतीय एथलीट दीपा मलिक का मानना है। इनका कहना है कि ‘‘शारीरिक रूप से कोई विकलांग नहीं होता, कोई भी व्यक्ति अपंग होता है तो दिल, दिमाग और विचारों से।’’ यहां बताते चलें कि दीपा मलिक की छाती के नीचे का हिस्सा अपंग है। तीन बार उसके स्पाईनल कोर्ड के ट्यूमर की सर्जरी की जा चुकी है, जिसके परिणामस्वरूप उसके ऊपरी स्पाईनल कालम में 183 टांके आये। इन सबके बावजूद उसने अपनी अपंगताओं से हार ना मानते हुए अब तक कई अवार्ड और पदकों को अपने नाम कर चुकी है। ऐसे ही हजारों विकलांग व्यक्ति हैं जो अपने बुलंद इरादों के चलते करियर के सर्वोच्च शिखर पर पहुंच चुके हैं। इनका हिम्मत इतना बुलंद होता है दुर्गम एवरेस्ट की चोटी को फतह करने से भी पीछे नहीं हटते और ऐसा कर जाते हैं कि दुनिया उन्हें सलाम करने पर मजबूर हो जाती है।
इन्हें मजबूती देने के लिए दुनियाभर की सरकार अपने-अपने स्तर से सहायक उपकरण, छात्रवृत्तियां, पुरस्कार और आर्थिक सहायता और शासकीय नौकरियों में आरक्षण की सुविधा प्रदान करती है। जिसका लाभ कुछ हद तक विकलांगों को हो रहा है। इसके अलावा जानकारी के अभाव में बहुत सारे लोग इस सुविधा से वंचित होते रहे हैं। ऐसे व्यक्तियों तक सरकार की योजनाओं को पहुँचाना जरुरी है। सरकार के अलावा कई सारे स्वयं सेवी संगठन विकलांगों की मदद हेतु उल्लेखनीय कार्य कर रही है।

वास्तव में यदि सकारात्मक रहा जाए तो अभाव भी विशेषता बन जाती है। विकलांगता से ग्रस्त लोगों को मजाक बनाना, उन्हें कमजोर समझना और उनको दूसरों पर आश्रित समझना एक भूल और सामाजिक रूप से एक गैर जिम्मेदाराना व्यवहार है। देखा जाए तो समाज का प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी किसी रूप से विकलांग होता है चाहे वह शारीरिक रूप से हो या मानसिक रूप से। विकलांगों के प्रति दिखावटी सहानुभूति किसी हादसे से कम नहीं होती। चूंकि समय के साथ-साथ वे अपने दुख व गम भूल चुके होते हैं और नए जीवन के पथ पर अग्रसर होते हैं, इस दौरान यदि कोई व्यक्ति उसकी विकलांगता के प्रति सहानुभूति प्रकट करता है तो उसका दुख पुनः जीवित हो उठता है। ऐसे में सहानुभूतिविकलांगों के लिए सबसे बड़ा दुश्मन बन जाता है। इसलिए सहानुभूति छोड़कर उनके आत्मविश्वास को जगाएं व हौसला बढ़ाएं। हम सभी का कर्तव्य बनता है कि ऐसे व्यक्तियों का हौसला आफजाई कर उन्हें एक सम्मानजनक और आत्मनिर्भर जिंदगी जीने के लायक बनाने हेतु मदद करें।
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