Twarit, sasta evam aasan nyaya uplabdh karana sabse badi chunauti ( on National Law Day- 26th November) - सुस्वागतम्
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Twarit, sasta evam aasan nyaya uplabdh karana sabse badi chunauti ( on National Law Day- 26th November)

(राष्ट्रीय विधि दिवस-26 नवंबर के उपलक्ष्य में)

त्वरित, सस्ता एवं आसान न्याय उपलब्ध कराना सबसे बड़ी चुनौती

निर्भय कर्ण

गत् दिनों ही भारत के हरियाणा में सतलोक आश्रम के मालिक बाबा रामपाल की घटना ने न केवल बाबाओं के क्रियाकलापों पर सवाल उठाया बल्कि हमारी न्यायिक प्रक्रिया व इसे पालन करने वालों पर भी प्रश्नचिह्न खड़े किए। जिस प्रकार बाबा रामपाल ने पुलिस, सेना सहित प्रशासन को कई दिनों तक छकाता रहा, इससे पुनः एक बार यह स्पष्ट हो गया कि प्रतिष्ठा के चरम पर पहुंचने के बाद ऐसे लोग किस प्रकार कानून से आंख-मिचैली का खेल खेलना शुरू कर देते हैं। लेकिन अंततः कानून ही विजयी हुआ और बाबा रामपाल गिरफ्तार हुआ और अब वह जेल में बंद है। गिरफ्तारी के बाद से जिस प्रकार इनके कुकर्मों पर से एक-एक कर पर्दा उठ रहा है तो लोगों के मन में यह सवाल उत्पन्न हो रहा है कि क्या बाबा रामपाल को उसके गुनाहों की सजा मिलेगी या फिर कानूनी दांव-पेंच में वह उलझाकर स्वयं निकल बचेगा? दूसरा सवाल यह कि यदि सजा होगी तो आखिर कब, क्योंकि हमारे यहां न्यायिक प्रक्रिया पूरी होने में काफी लंबा समय लग जाता है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने खुद भी माना है कि देश में आपराधिक मुकदमों के निपटारे की गति बहुत सुस्त है, उसे फास्ट ट्रैक करने के लिए केंद्र सरकार को गंभीर प्रयास करने होंगे। यह बुरी स्थिति है कि मुकदमों के निस्तारण में दशक लग जाते हैं, इसे सुधारना ही होगा।

देखा जाए तो सामाजिक न्याय संविधान का सबसे पवित्र कर्तव्य तथा जनता से किया गया वादा है। यही वजह है कि 1949 में 26 नवंबर को संविधान सभा में देश के संविधान को स्वीकार किया गया था। इसी परिप्रेक्ष्य में भारत में इस दिन को प्रतिवर्ष राष्ट्रीय विधि दिवस के रूप में मनाया जाता है। अदालतें सिर्फ अमीरों, जमींदारों और अभिजात्य वर्ग में आने वालों के लिए नहीं है, व्यापारियों, उद्योगपतियों के पक्ष में आदेश देने के लिए ही नहीं बल्कि गरीब, पिछड़े, दीन-हीन, अपंग, अधपेट भारतीयों के लिए भी हैं। अभी तक अदालतें उनके लिए रही जो अपने पैसे के बल पर अदालत पहुँचते रहे, जिनके पास अदालत का दरवाजा खोलने की सोने की कुंजी थी। न्याय की बाट जोहते-जोहते हजारों लोगों की आशाओं पर पानी फिर जाता है, क्योंकि अभियोजन पक्ष, पुलिस/सरकार, बचाव पक्ष, अधिवक्ता के बीच न्यायपालिका की निष्पक्षता कम-से-कम इस मामले में तो दबकर ही रह गई कि ‘‘न्याय में देरी का अर्थ है न्याय देने से मना कर देना। भारत ने न्यायिक प्रणाली का वही स्वरूप स्वीकार कर लिया जो हमें अंग्रेजों से विरासत में मिला था। शताब्दियों पुराने अनेक कानून एवं कानूनी प्रक्रिया आज भी विद्यमान है। देश की न्याय व्यवस्था की न्यायिक प्रक्रिया इस सीमा तक अत्यधिक लम्बी, उबाऊ, दुरुह और खर्चीली हो गई है कि आम आदमी न्याय पाने से वंचित होता जा रहा है। धन-बल एवं बाहुबल के सहारे शातिर-से-शातिर अपराधी न्यायालयों से साफ बरी हो रहे हैं या जमानत पर छूटकर न्यायिक प्रक्रिया को लम्बा खींचकर जारी सुख-सुविधाओं का उपभोग कर रहे हैं। निर्धन और कमजोर हैं, जो सालों दर साल चलने वाली सुनवाई के दौरान सजा काट रहे हैं। अब समय आ गया है कि परिस्थितियों के अनुसार कानूनों को परिष्कृत करने के बारे में एक नये सिरे से सोचा जाए। इसी मद्देनजर नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा राष्ट्रीय नियुक्ति आयोग बनाने के लिए संसद के द्वारा बिल पास कराना सराहनीय कदम साबित हुआ। इस माध्यम से अब जज की नियुक्ति स्वंय जज नहीं कर सकेगा बल्कि अब यह कार्य राष्ट्रीय नियुक्ति आयोग करेगा।
              
  वर्तमान में न्याय प्रणाली के समक्ष त्वरित, कम खर्च में, एवं आसान न्याय उपलब्ध कराना एक सबसे बड़ी चुनौती है। जून 2013 तक के आंकड़ों का विश्लेषण किया जाए तो देशभर में लगभग साढ़े तीन करोड़ मुकदमें लंबित हैं। न्यायालय में लंबित मामलों की संख्या में प्रत्येक वर्ष वृद्धि होने तथा अनेकानेक कारणों से उसका अपेक्षित तत्परता से निस्तारण न हो पाने के कारण शीघ्र एवं सस्ता न्याय प्रदत्त करने की समस्या लगातार गम्भीर होती जा रही है। जहां एक ओर साधन-सम्पन्न लोग अधिकारों को प्राप्त करने की क्षमता रखते हैं वहीं दूसरी ओर गरीब, अनपढ़ एवं साधनहीन लोग भी हैं जो न्यायालयों या न्यायाधिकरणों अथवा संबंधित अधिकारों तक आसानी से पहुंचने में भी समर्थ नहीं है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39-क के अन्तर्गत प्रावधान किया गया है कि यह राज्य का दायित्व है कि वह विधि तंत्र को इस प्रकार प्रभावी बनाएं कि समान अवसर के आधार पर सभी नागरिकों को न्याय सुलभ हो और कोई भी नागरिक आर्थिक अथवा अन्य किसी अयोग्यता के कारण न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह सके। इन संवैधानिक व्यवस्थाओं के अंतर्गत देशभर में विविध स्तरीय न्यायिक प्रणाली को क्रियाशील बनाया गया है। इस न्यायिक प्रणाली को कमजोर वर्गों की पहुंच तक विस्तारित करने और अधिक प्रभावी बनाने के उद्देश्य से वर्ष 1980 में केंद्र स्तर पर विविध सहायता क्रियान्वयन समितिकी स्थापना भी की गई। इसके अलावा भी और कई प्रयास किए गए लेकिन अब तक इसमें  अपेक्षित  सफलता हाथ नहीं लगी है।


                भारत की आजादी के लंबे अर्से बीत जाने के बाद भी आज भी न्याय से वंचित हैं निर्धन व गरीब लोग। इसके पीछे केवल आर्थिक व सामाजिक ताना-बाना ही नहीं बल्कि निरक्षरता भी एक बड़ी समस्या है। इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं कि निरक्षरता दर में काफी कमी आई है लेकिन साक्षरता के नाम पर केवल हस्ताक्षर व औपचारिक रूप से पढ़ाई कर लेना ही न्याय से वंचित होने का प्रमुख कारण है। बहुत कम ही ऐसे लोग हैं जिन्हें विधि व अपने अधिकारों के बारे में पता है। और जब तक लोगों को अपने अधिकारों व उसे प्राप्ति करने का ज्ञान नहीं होगा तब तक न्याय से वंचित होने की गुंजाइश बनी रहेगी। अगर लोग अपने अधिकारों और देश के कानूनों को जानेंगे, तो निष्चित रूप से उनके हितों को चोट कम से कम पहुंचेगी। सबको निराशा का दामन छोड़कर अपने प्रति आशावान रहना चाहिये तथा अपने अधिकारों के प्रति सचेष्ट रह कर कानून का पूर्णतया पालन करना चाहिए।
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