Jiwandayini Dharti Ko Bachane ki Chunauti (on the Occasion of World Earth Day) - सुस्वागतम्
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Jiwandayini Dharti Ko Bachane ki Chunauti (on the Occasion of World Earth Day)

(22 अप्रैल- विश्व पृथ्वी दिवस के उपलक्ष्य में)
जीवनदायिनी धरती को बचाने की चुनौती
निर्भय कर्ण
जब बारिश की बूंदें धरती/पृथ्वी पर पड़ती हैं तो हमारा रोम-रोम पुलकित हो जाता है, पृथ्वी खुशी से मुस्कराने लगती है और ईश्वर का धन्यवाद करती है लेकिन वर्तमान हालात ने पृथ्वी को मुस्कराने पर
नहीं बल्कि सिसकने पर मजबूर कर दिया है। वजह साफ है सजीवों को जीवन प्रदान पोषित करनेवाली अनोखी और सुन्दर पृथ्वी को चारों ओर से क्षति पहुंचाने का कार्य चरम पर है जो प्राकृतिक आपदा के लिए प्रमुख कारक है। मानव यह भूलता जा रहा है कि पृथ्वी हमसे नहीं बल्कि पृथ्वी से
हम हैं यानि कि यदि पृथ्वी का अस्तित्व है तो हमारा अस्तित्व है अन्यथा हमारा कोई मूल्य नहीं। लेकिन यह बात मानव मन-मस्तिष्क से निकाल नजरअंदाज कर भारी गलती कर रहा है और इसका नतीजा मानव भुगत भी रहा है। दुनियाभर में  प्रदूषण से लगभग 21 लाख लोग हर साल मौत की गोद में समा जाते हैं, यह जानते हुए भी हम पृथ्वी के अस्तित्व से खिलवाड़ करने पर लगातार उतारू है!

कुल मिलाकर पृथ्वी को मुख्यतः चार चीजों से खतरा है। पहला है ग्लोबल वार्मिंग। विषेशज्ञ यह आशंका व्यक्त कर रहे हैं कि ग्लोबल वार्मिंग ने मौसम को और भी मारक बना दिया है और आनेवाले वर्षों में मौसम में अहम बदलाव होने की पूरी संभावना है, चक्रवात, लू, अतिवृष्टि और सूखे जैसी आपदाएं आम हो जाएंगी। धरती पर विद्यमान ग्लेशियर से पृथ्वी का तापमान संतुलित रहता है लेकिन बदलते परिवेश ने इसे असंतुलित कर दिया है। तापमान में बढ़ोतरी का अंदाजा वर्ष दर वर्ष हम सहज ही महसूस करते हैं। कुछ दशक पहले अत्यधिक गर्मी पड़ने पर भी 38 से 40 डिग्री सेल्सियस तापमान हुआ करता था लेकिन अब यह 50 से 55 डिग्री सेल्सियस तक जा पहुंचा है। लगातार बढ़ते तापमान से ग्लेशियर पिघलने लगा है और वह दिन दूर नहीं जब पूरी पृथ्वी को जल प्रलय अपने आगोश में ले लेगा। संयुक्त राष्ट्र् की इंटरगवर्मेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट इस बात की पुष्टि  करती है कि धरती के बढ़ते तापमान और बदलती जलवायु के लिए कोई प्राकृतिक कारण नहीं बल्कि इंसान की गतिविधियां ही जिम्मेदार हैं। इसलिए अभी भी वक्त है कि हम समय रहते संभल जाएं।

बढ़ते तापमान से केवल जलवायु परिवर्तन होने लगा है बल्कि पृथ्वी पर आॅक्सीजन की मात्रा भी कम होने लगी है जिससे कई बीमारियों का बोलबाला होता जा रहा है और इसका मुख्य कारण है ग्रीनहाउस गैस, बढ़ती मानवीय गतिविधियां और लगातार कट रहे जंगल। पेड़ों की अंधाधुध कटाई एवं सिमटते जंगलों की वजह से भूमि बंजर और रेगिस्तान में तब्दील होती जा रही है। यदि भारत की ही बात करें तो यहां पिछले नौ सालों में 2.79 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र विकास की भेंट चढ़ गए जबकि यहां पर कुल वन क्षेत्रफल 6,90,899 वर्ग किलोमीटर है। वन केवल पृथ्वी पर मिट्टी की पकड़ बनाए रखता है बल्कि बाढ़ को भी रोकता और मृदा को उपजाऊ बनाए रखता है। साथ ही, वन ही ऐसा अनमोल चीज है जो बारिश कराने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देकर हमें पानी उपलब्ध कराता है। धरती पर पानी की उपलब्धता की बात करें तो धरती पर 1.40 अरब घन किलोमीटर पानी है। इसमें से 97.5 फीसदी खारा पानी समुद्र में है, 1.5 फीसदी पानी बर्फ के रूप में है। इसमें से ज्यादा ध्रुवों एवं ग्लेशियरों में है जो लोगों की पहुंच से दूर है। बाकी एक फीसदी पानी ही नदियों, तालाबों एवं झीलों में है जहां मनुष्य की पहुंच तथा पीने योग्य है। लेकिन इस पानी का भी एक बड़ा भाग जो 60-65 फीसदी तक है खेती और औद्योगिक क्रियाकलापों पर खर्च हो जाता है। संयुक्त राष्ट्र की वर्ल्ड वाॅटर डेवलेपमेंट रिपोर्ट ‘2014’  के मुताबिक, 20 प्रतिशत भूमिगत जल खत्म हो चुका है और 2050 तक इसकी मांग में 55 प्रतिशत तक इजाफा होने की संभावना है। पानी संकट का मुख्य कारण इसकी बर्बादी ही है। आंकड़ों पर गौर करें तो 60 प्रतिशत तक पानी इस्तेमाल से पहले ही बर्बाद हो जाता है।

दूसरा है ओजोन परत में छिद्र। सूर्य की खतरनाक पराबैंगनी किरणों से ओजोन की छतरी हमें बचाती है लेकिन मानवीय गतिविधियां एवं प्रदूषण ने इसमें लगातार छिद्र होने पर मजबूर कर दिया है। इस महत्वपूर्ण परत में छिद्र का आकार लगातार बढ़ता ही जा रहा है जो भयंकर विनाश की ओर इशारा करती है। देखा जाए तो, ओजोन क्षरण के लिए क्लोरोफ्लोरोकार्बन गैस और खेती में इस्तेमाल किया जाने वाला पेस्टीसाइड मेथिल ब्रोमाइड जिम्मेदार है। रेफ्रीजरेटर से लेकर एयरकंडीशनर तक क्लोरोफ्लोरोकार्बन गैस का उत्सर्जन करते हैं और इन उपकरणों के प्रचलन में तेजी से बढ़ोतरी हो रही है। बढ़ते प्रदूषण ने लोगों का सांस लेना दूभर कर दिया है। येल यूनिवर्सिटी के ग्लोबल इनवायरनमेंट परफारमेंस इंडेक्स (ईपीआई) ‘2014’ के मुताबिक, दमघोंटू देश में जहां भारत 155वें स्थान पर है वहीं नेपाल 139वें स्थान पर।

तीसरा है प्राकृतिक संसाधनों का दोहन। धरती का गर्भ दिन-प्रति-दिन खोखला होता जा रहा है जिसका मुख्य कारण है खनिज पदार्थों का दोहन, प्राकृतिक संपदाओं की तलाश आदि। विशेषज्ञ इस बात की आशंका व्यक्त कर रहे हैं कि धरती का ऊपरी परत का आवरण कमजोर पड़ता जा रहा है जिससे धरती बिखर सकती है। खदानों और बोरवेल के दौर में पहाड़, नदी, पेड़ और जंगल लगभग समाप्त होने के कगार पर पहुंच चुके हैं।

चैथा है परमाणु युद्ध। पूरी दुनिया में तेजी से आगे बढ़ने की दौड़ की जद्दोजहद में देशों के बीच शत्रुता और वैमनस्यता अपना स्थान बना रही है। ऐसे हालात में परमाणु युद्ध होने का खतरा भी सबसे ज्यादा बना रहना स्वाभाविक है। इसी वजह से सभी देश परमाणु बम बनाने की जुगत में रहते हैं और कई दर्जन देश इसे हासिल भी कर चुके हैं। आज विश्व में इतने परमाणु बम हैं कि लगभग 1000 बार धरती को नष्ट किया जा सकता है। जापान के हिरोशिमा और नागासाकी शहरों पर परमाणु बम इस्तेमाल करने के परिणामों से इन बमों की विध्वंसक शक्ति का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है।

हमें हर हाल में अपनी जीवनदायिनी पृथ्वी को बचाना होगा। पर्यावरण संतुलन के लिए अधिक से अधिक पेड़-पौधों को लगाना, उनकी देखभाल करना सभी को अपना कर्तव्य मानना होगा। पर्यावरण को बचाने की दिशा में  ऊर्जा संरक्षण पर बल देना, वैश्विक ताप के निवारक उपायों में गैसों के उत्सर्जन पर भारी कटौती के साथ-साथ प्रभावकारी उपायों पर गंभीर चिंतन करना, घरों से निकलने वाला मलमूत्र और कूड़ा फैक्ट्रियों से निकलने वाली गंदगी से ज्यादा प्रदूषण के पूर्ण निस्तारण पर काम करना, इको फ्रेंडली विकास पर जोर देना होगा। बायो गैस के साथ-साथ सौर ऊर्जा के इस्तेमाल को अधिक से अधिक करना आज की जरूरत बन गयी है जिससे कि सीमित प्राकृतिक संसाधनों और पारिस्थितिकी तंत्र पर दबाव को कम किया जा सके। इसके साथ ही हमें दुनिया की बढ़ती आबादी को नियंत्रण करने के लिए आवश्यक कदम उठाने होंगे।

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