Manvadhikar Par uthate sawal (on Occasion of International Humanright Day- 10 December) - सुस्वागतम्
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Manvadhikar Par uthate sawal (on Occasion of International Humanright Day- 10 December)


(10 दिसंबर-अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस के उपलक्ष्य में)
मानवाधिकार पर उठते सवाल?
निर्भय कर्ण
10 दिसंबर यानि मानवाधिकार दिवस को लेकर अक्सर विवाद बना रहता है कि क्या वाकई में मानवाधिकारों की रक्षा हो पाती है। जिस प्रकार परोक्ष-अपरोक्ष रूप से मानवाधिका
रों का हनन होता है उससे मानवाधिकार दिवस पर अंगुली उठना लाजिमी है। हाल ही में आईएसआईएस द्वारा मानवाधिकारों को ताक पर रखकर कत्लेआम, महिलाओं की खरीद-फरोख्त की घटना ने लोगों को झकझोड़ कर रख दिया है। एक तरफ आतंकवाद अपना फन फैलाते हुए मानवाधिकारों की धज्जियां उड़ा रहा है तो दूसरी तरफ लोकतंत्र के साये में भी मानवाधिकार का हनन भी कम तार-तार नहीं हो रही है। कहीं अपने धन-बल से तो कहीं तानाशाही की वजहों से मानवाधिकार पर चोट पहुंचता रहा है। इसका ताजा उदाहरण नेपाल में सी के राउत की गिरफ्तारी के संदर्भ को लेकर समझा जा सकता है। मधेश के पक्ष में एक बयान देने भर से वहां सियासी तूफान इस कदर उठा कि उन्हें गिरफ्तार कर जेल में ठूंस दिया गया। जहां इनके साथ मानवाधिकारों के हनन की खबरें भी आई। जबकि लोकतंत्र में शांतिपूर्वक तरीके से अपनी बात कहने का सभी का मौलिक अधिकार होता है। राउत को मधेश का मिलता अपार जनसमर्थन से घबराकर जमानत पर छूटे राउत को फिर से गिरफ्तार कर लिये जाने की घटना व इनके समर्थकों के साथ मार-पीट की घटना ने इस दिवस को फिर से कटघरे में ला खड़ा कर दिया। ऐसे में मानवाधिकार की रक्षा कैसे हो पाएगी, लोगों की जेहन में यह रहस्यमय सवाल अब तक बना हुआ है।       
मानवाधिकरों के आंकड़े विश्व पटल पर अत्याधिक भयावह हैं। नेपाल में 1996 से 2006 के दशक में हुए संघर्ष के दौरान 13 हजार लोगों की मौत हुई थी और लगभग 1300 अब भी लापता हैं। वहीं शरणार्थियों के लिए दुनिया खतरनाक होती जा रही है। मई, 2013 में एमनेस्टी इंटरनेशनल की जारी रिपोर्ट के मुताबिक, दुनिया संघर्षों को रोकने में नाकाम रही है जिससे वैश्विक निम्न वर्गकी उत्पत्ति हो रही है। दुनिया में विस्थापितों की संख्या 4.52 करोड़ है जिसमें  76 लाख लोग 2012 में संघर्षों की वजह से विस्थापित हुए जबकि 65 लाख लोग ऐसे हैं जो अपने ही देश में विस्थापित हुए। इस रिपोर्ट में कहा गया था कि संघर्षों की वजह से अपना घर छोड़नेवालों के अधिकारों की रक्षा कोई नहीं करता है। इसके पीछे वे दिखावटी कानून हैं जिनका इस्तेमाल शरणार्थियों के हितों के लिए किया जाता है। जबकि छोटी-छोटी घटनाएं जैसे- संघर्ष, दंगा, गुटबाजी होना और उसमें लोगों की मौत हो जाना आम बात हो गई है। दूसरी ओर, दासता की नजर में मानवाधिकारों के उल्लंघन की बात करें तो पर्थ आधारित वाक फ्री फाउंडेशन के द्वारा जारी एक सूचकांक के मुताबिक दुनिया में 2.98 करोड़ गुलाम हैं जिसमें भारत 1.39 करोड़ गुलामों के साथ चैथे स्थान पर है। आधुनिक गुलामी के अंतर्गत अधिकतम प्रसार वाले देश में भारत चैथे व नेपाल पांचवे स्थान पर है। यानि कि गुलामी की जिंदगी इस आधुनिक दौर में भी जारी है चाहे वो बंधुआ मजदूर या नौकर के रूप में हो या अन्य रूप में।
किसी भी इंसान की जिंदगी में आजादी, बराबरी और सम्मान जैसे मानवाधिकार मानव के समग्र व्यक्तिगत विकास में महत्वपूर्ण भूमिका रखता है क्योंकि इनकी अनुपस्थिति में मानव के विकास की कल्पना तक नहीं की जा सकती और इसी सोच को सुव्यवस्थित तथा उन्हें संगठित रूप देने का प्रथम अंतर्राष्ट्रीय प्रयास 25 सितंबर, 1926 को दासता के विरूद्ध शंखनाद करते हुए विश्व सम्मेलन के रूप में उभर कर सामने आया। लेकिन 18 साल तक सम्मेलनों और बैठकों के पश्चात मानवाधिकारों की पहली सुव्यवस्थित घोषणा 10 दिसंबर, 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ की साधारण सभा में की गयी। इस प्रकार प्रत्येक वर्ष 10 दिसंबर को अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस मनाया जाने लगा। इसी संदर्भ में 2014 के इस दिवस का थीम रखा गया है-  ह्यूमन राइट्स 365’  जिसका मतलब है प्रत्येक दिन मानवाधिकार दिवस है। लेकिन इस थीम का क्या असर होगा, लोग भली-भांति वाकिफ है। लेकिन सभी को निराशा का दामन छोड़ कर अपने प्रति आशावान रहना चाहिए तथा अपने अधिकारों के प्रति सचेष्ट रह कर कानून का पूर्णतया पालन करना और कराना चाहिए।
संयुक्त राष्ट्र एवं विश्व के लगभग सभी देशों में लोगों या कैदियों को यातनाएं दिए जाने के विरोध में कई सारे प्रस्ताव और कानून पारित होते रहने के बावजूद आज भी दुनियाभर के तमाम देश मानवाधिकारों का उल्लंघन करते रहते हैं। कहीं अपराधियों से सच उगलवाने के नाम पर तो कहीं नागरिकों को नियंत्रण में रखने के नाम पर तो कहीं कर्ज वसूलने के नाम पर बंधक या बंधुआ मजदूर बनाकर मानवाधिकार का उल्लंघन किया जाता रहता है। अपने दुश्मनों को बर्बरता-क्रूरता से सजा देना शासकों व तानाशाहियों का शौक बनता जा रहा है। जबकि समाज में व्याप्त भेदभाव, छोटी-छोटी बातों पर एक-दूसरे का खून का प्यासा हो जाने जैसी प्रवृत्ति हमेशा से ही मानव के अधिकारों को चुनौती देता रहा है।

किसी भी सभ्य समाज के लिए न्याय बेहद अहम होता है। न्याय समाज को कई बुराईयों और गैर-सामाजिक तत्त्वों को दूर रखने के साथ लोगों के नैतिक और मानवाधिकारों की रक्षा करता है। आम जनता अपनी मूल जरूरतों के लिए न्याय प्रक्रिया को नहीं जानता जिसके अभाव में बार-बार उसके मानवाधिकारों का हनन होता है और उसे अपने अधिकारों से वंचित रहना पड़ता है। कानून की जानकारी दुनिया की आबादी की तुलना में नाममात्र लोगों को है और जब तक लोगों को अपने अधिकारों व उसे प्राप्त करने का ज्ञान नहीं होगा तब तक लोगों को न्याय से वंचित होने की गुंजाइश बनी रहेगी। कानून की जानकारी सभी के लिए जरूरी है। अगर लोग अपने अधिकारों और देश के कानूनों को जानेंगे, तो निश्चित रूप से उनके हितों को चोट कम से कम पहुंचेगी और इससे इस दिवस के अन्य उद्देश्यों को मजबूती मिलेगी।
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