Mahilaon ki dayniya sthiti ke liye ashiksha hi jimmedar
महिलाओं की दयनीय स्थिति के लिए अशिक्षा ही
जिम्मेदार
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मधुबनी, बिहार की बेटी ‘मिथिला चौधरी’ ने न केवल नेपाल के सप्तरी से सभासद के रूप में निर्वाचि
त
होकर नेपाल का मान बढाया बल्कि भारत का भी नाम रोशन किया है और अब महिलाओं सहित
क्षेत्र से सम्बंधित समस्याओं को संसद में जोर-शोर से उठाकर अपनी बात को मजबूती से
रख रही है. इसका सीधा-सीधा मतलब यह है कि बेटियां अब किसी भी मामले में बेटों से
पीछे नहीं है। वह लड़कों के साथ कदम से कदम मिलाकर देश की उन्नति में काम करने की
अभिलाषा रखती है इसलिए बेटियां भी बेटों की तरह घर, मां-बाप, भाई-बहन से दूर रहकर शहरों में पढ़ाई व नौकरियां करती है और सफलता हासिल कर
मां-बाप, समाज व देश का नाम रोशन करती है। लाखों ऐसी बेटियां है देश-विदेश में अपने
लक्ष्य को पाने के लिए संघर्षरत है। देखा जाए तो नौकरी से लेकर संसद तक महिलाओं की
मौजूदगी ने यह साबित कर दिया है कि यदि उसे मौका दिया जाए तो बेटियां लोगों की
उम्मीदों को धूमिल नहीं होने देगी।
‘हिमालिनी’ को दिए एक इंटरव्यू में मिथिला चौधरी ने नेपाल में महिलाओं की समस्या
के बारे में बड़े ही निर्भीकता से जवाब देते हुए बताती है कि “नेपाल में महिलाओं को
सदियों से दबा कर रखा गया है. चारदीवारी से बाहर आने में समय तो लगेगा ही.” नेपाल
में महिलाओं की बदतर स्थिति के बावजूद सभासद
श्रीमती चौधरी बहुत ही आशावान है और कहती है कि “पिछले कुछ दशक से महिला बाहर आने
लगी है लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं है. ज्यादा से ज्यादा महिलाओं को बाहर आना
होगा. तभी जाकर महिलाओं की स्थिति में परिवर्तन होगा.”
देखा जाये तो हाल ही में युनिसेफ द्वारा जारी सूची के मुताबिक, बाल विवाह के मामले में नेपाल 10वें
स्थान पर है तो नाइजर शीर्ष पर जबकि भारत 5वें स्थान पर है लेकिन भारत दुनिया के
उन प्रमुख विकासशील देशों में भी शामिल है जहां सबसे अधिक बाल विवाह होते हैं। यह हमेशा
जोर दिया जाता रहा है कि यदि बेटियां व उसका परिवार शिक्षित होगा तो बाल विवाह पर
अंकुश लगने में मदद मिलेगी लेकिन शिक्षा पर जोर देने के बावजूद अभी भी बाल विवाह
की समस्या बरकरार है। श्रीमती चौधरी नेपाल में महिलाओं की दयनीय स्थिति के लिए
अशिक्षा को ही सबसे बड़ा कारण मानती है. वह इस सम्बन्ध में कहती है कि शिक्षा
मनुष्य को चेतना देती है और चेतनशील होने के बाद लोगों में आत्मविश्वास आता है
इसलिए शिक्षा पर ही जोर देना होगा.
देखा जाये तो, साक्षरता के लिहाज से भारत में 65.46 प्रतिशत महिलाएं ही पढ़ना
और लिखना जानती है वहीं नेपाल में पुरुष साक्षरता दर 75.1 प्रतिशत के मुकाबले
महिला साक्षरता दर 57.4 प्रतिशत है। एक ओर जहां भारत में 6.8 प्रतिशत बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं तो दूसरी ओर
नेपाल में लगभग आधे बच्चे प्राथमिक स्कूल तक भी नहीं पहुंच पाते।
कन्या भ्रूण हत्याओं, बालिकाओं के खिलाफ अन्याय को रोकने और उन्हें
एक सशक्त आदर्श समाज देने के उद्देश्य से कई प्रकार की योजनाएं व कानून क्रियांवित होने
के बावजूद बेटियों के खिलाफ गहरा लैंगिक भेदभाव व्याप्त हैं जैसे-जन्म से पहले ही
भ्रूण की लिंग जांच कराकर हत्या, जन्म के बाद पालन-पोषण, स्वास्थ्य और पढ़ाई में भेदभाव, बालविवाह एवं अन्य। इस बात को भली- भांति सभासद मिथिला चौधरी समझती है और
यह मानती है कि सप्तरी सहित पूरे देश में घरेलू हिंसा में बढ़ोतरी हुई है. महिलाओं
के साथ यौन दुर्व्यवहार बढ़ गया है लेकिन घर और समाज के दर के कारण वो बोल नहीं पा
रही है.
जबकि नेपाल की आर्थिक गतिविधियों में 42.07 प्रतिशत योगदान 10.14 साल के
लड़के-लड़कियों का होता है जिसमें लगभग 60 प्रतिशत बेटियां होती है। यह विदित है
कि घर से लेकर कार्यस्थल तक बेटियों को छेड़छाड़ व शोषण का शिकार होना पड़ता है।
बच्चियों, महिलाओं के साथ दुष्कर्म, छेड़छाड़ और छींटाकशी जैसी घटनाएं सबसे ज्यादा
घरों में ही होती हैं। दुष्कर्म पीडि़त बेटियों एवं महिलाओं को आजीवन गहन मानसिक
आघात झेलना पड़ता है जिसमें से कईयों को तो सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता
है। कुछ आत्महत्या के रास्ता को अपना लेती हैं तो कुछ मजबूरीवश वेश्यावृत्ति के
धंधे को। आखिर इसके पीछे कौन जिम्मेदार है-सरकारी मशीनरी या फिर निरक्षरता या
हमारी सामाजिक मानसिकता या नारी स्वयं। कुल मिलाकर ये सभी तत्व जिम्मेदार है और इन
सबसे मुक्ति पाना अत्यंत आवश्यक है नहीं तो हमलोग हर बार महिला हिंसा उन्मूलन दिवस
मनाते रहेंगे और प्रण लेते रहेंगे लेकिन होगा रत्ती भर कुछ भी नहीं और महिलाओं के
खिलाफ हिंसा जारी रहेगी। हिंसा रोकने के लिए जरूरी है- सोच में बदलाव, उचित शिक्षा, सही परवरिश व स्वावलम्बन। अब
महिलाओं को स्वयं आगे बढ़कर इन सबसे मुक्ति पाना होगा जिससे कि उन्हें कोई कमजोर न
समझ सके। अब बेटियों को स्वयं स्वावलंबन होकर अपने अधिकारों को समझना होगा और उन
अधिकारों को पाना होगा क्योंकि आखिर कब तक सरकारी मशीनरी पर हम भरोसा करते रहेंगे।
हमें नहीं भूलना कि बिटिया बिना दुनिया की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए
भ्रूण हत्या का डटकर मुकाबला कर बेटियों को जीने का हक देना होगा। बेटियों को उसके
हकों को देना न केवल हमारा कर्तव्य है बल्कि उसका अधिकार भी। बेटियों को सही दिशा
व प्रगति में एक दोस्त की भांति पेश होना होगा। समाज में बेटियों के साथ कई सारी
ऐसी घटनाएं घटती है जिसे बच्चियां अपने माता-पिता को बताने से संकोच करती है और
इसका कारण है माता-पिता के प्रति डर और अव्यवहारिक रिश्ता। ऐसे में प्रत्येक
माता-पिता को अपनी बेटियों को एक अलग पहचान देनी होगी ताकि एक स्वच्छंद व भेदभाव
रहित समाज की स्थापना हो सके। दूसरी प्रमुख बात बेटियों के प्रति घर में हो रहे
पक्षपात को दूर करना होगा और उन्हें यह समझना होगा कि बेटी है तो कल है। इसलिए
बेटियों की सेहत, पोषण व पढ़ाई जैसी चीजों पर ध्यान दिए जाने की
खास जरूरत है ताकि वे बड़ी होकर शारीरिक, आर्थिक, मानसिक व भावनात्मक रूप से न सिर्फ सक्षम व
आत्मनिर्भर बनें बल्कि आगे चलकर एक बेहतरीन समाज के निर्माण में भी योगदान दे
सकें। साथ ही साथ अब समय आ गया है कि महिला स्वयं भी अपने को सशक्त करें और
कुरीतियों का मुकाबला कर अपने साथ हो रहे हिंसा और अत्याचार का करारा जवाब दें।
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