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Jati ki rajniti se rahen dur

                 जातिवाद की राजनीति से रहें दूर
निर्भय कर्ण

         नरेंद्र मोदी ने शपथ ग्रहण के तुरंत बाद काले धन पर एसआईटी, गंगा सफाई अभियान की शुरुआत, योजना आयोग की समाप्ति, न्यायिक आयोग गठन, प्रधानमंत्री जन-धन योजना, स्वच्छ भारत अभियान जैसे अनेक कार्यों की शुरुआत करके लोगों के विश्वास को ही नहीं बल्कि दिल भी जीता है। परिणामस्वरूप, हरियाणा में भाजपा ने पूर्ण बहुमत प्राप्त कर सत्ता हासिल किया वहीं महाराष्ट्र में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। चूंकि महाराष्ट्र में बिना गठबंधन के सरकार चलाना मुश्किल है जिसके लिए भाजपा और शिवसेना के बीच मान-मनौवल का दौर जारी है जबकि एनसीपी बिना शर्त का समर्थन देने को पहले से ही तैयार बैठी है। इसी बीच झारखंड और जम्मू कश्मीर में चुनाव को लेकर घोषणा हो चुकी है। जबकि दिल्ली में विधान सभा भंग की सिफारिश के बाद यहां पर भी चुनाव की सुगबुगाहट शुरू हो चुकी है।

        देखा जाए तो, लोक सभा चुनाव, 2014 से लेकर हालिया विधान सभा चुनावों में कहीं न कहीं जातिवाद कमजोर हुआ है। नरेंद्र मोदी ने अपने नेतृत्व में जातिवाद को पीछे धकेलते हुए अपने आप को पूरे देश में स्थापित करने का एक सफल प्रयास किया। यही वजह है कि लोक सभा चुनाव से लेकर विधान सभा चुनाव तक वह एक किसी खास समुदाय के नेता नहीं बल्कि एक राष्ट्र नेता के रूप में उभरे हैं। इसी बीच, शरद यादव ने कुछ महीने पहले जनता से माफी मांगते हुए कहा था कि ‘‘लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार को आगे बढ़ने के लिए जिम्मेवार है। इन नेताओं ने सिर्फ जातिवादी राजनीति की। तभी बिहार की ऐसी दुर्दशा रही।’’
       
         इतिहास के पन्नों पर नजर डालें तो, 15 अगस्त, 1947 को अंग्रेजों ने भारत से जाते समय यह स्वतंत्रता दी कि यह उनकी इच्छा पर निर्भर करता है कि यदि वे चाहें तो अपने राज्य को स्वतंत्र भी रख सकते हैं। इसका असर यह हुआ कि जातिवाद जो सामंतवादी विचारधारा की देन थी, वह भारतीय लोगों की मानसिकता का अभिन्न अंग बन गया। यहां हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय राजनीति में जातिवाद का वर्चस्व शुरू से ही रहा है लेकिन इसे कोई भी दल प्रत्यक्ष रूप से नहीं स्वीकारता।
       
  1952 में अंतरिम सरकार के लिए हुए चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने सभी वर्गों के प्रतिनिधित्व के नाम पर दलित, पिछड़ा ओर अत्यंत पिछड़ी जातियों को टिकट देकर जातिवाद को हवा दे दी और इसी हवा ने भारतीय राजनीति में जातिवाद की नींव रखी। इसका हाल यह हुआ कि 60 के दशक के समय जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में समाजवादियों ने अगड़ा-पिछड़ा के नाम पर चुनाव लड़ा। इसी दौरान मंडल कमीशन के नाम से पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने का समय अविस्मरणीय काल साबित हुआ। इस कमीशन के चलते ही 7 नवंबर, 1990 को वीपी सिंह की सरकार गिर गयी और यहीं से लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान और नीतीश कुमार जैसे पिछड़ों के नेता के रूप में उभर कर निकले।

जहां एक तरफ लालू यादव का नारा ‘भूरा बाल (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला) साफ करो’ समाज में हावी होने लगा तो दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश में कांशीराम ने बसपा की स्थापना कर ‘तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’’ आदि नारे देकर अगड़ों-पिछड़ों की राजनीति को काफी आगे कर दिया। एक तरफ मुलायम सिंह यादव यादव और अल्पसंख्यकों के वोट के बल पर यूपी में अपनी पकड़ को सुदृढ़ किया तो दूसरी तरफ मायावती दलितों में अपनी पैठ को और मजबूत किया। लेकिन इन सभी के इरादों पर तब पानी फिर गया जब लोकसभा चुनाव, 2014 में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में भाजपा सबको पछाड़कर प्रथम पायदान पर आ जातिवाद की राजनीति शुरू करने वाली कांग्रेस इस सदमें से अभी उबरी भी नहीं थी कि महाराष्ट्र और हरियाणा में उसे करारी हार झेलनी पड़ी।

लोक सभा चुनाव के तुरंत बाद में हुए उपचुनाव में भाजपा को काफी नुकसान हुआ। कुल 18 लोकसभा सीटों में से 7 भाजपा को तथा एक उसके सहयोगी अकाली दल के पास गयी बाकि 10 सीट विरोधी दलों के खाते में चली गयी। यहां यह ध्यान देने वाली बात है कि बिहार में अपने वजूद को बचाने के लिए नीतीश कुमार और लालू यादव ने महागठबंधन किया। जिसका लाभ इन दोनों नेताओं को काफी हद तक मिला भी। इसी बीच  अर्थव्यवस्था में सुधार हुआ। बदहाल लग रही अर्थव्यवस्था के पटरी पर आने का भरोसा तो जगा ही साथ ही सरकार व जनता के उम्मीदों को एक नयी उड़ान भी मिल गयी और ऐसा महसूस किया जाने लगा कि अब हालात जल्द सुधर जाएंगे। इसका लाभ भाजपा को हरियाणा और महाराष्ट्र में मिला भी। यहां पर जातिवाद का वर्चस्व काफी हद तक नियंत्रण रहा। अब समय आ गया कि जातिवाद को राजनीति से दूर कर एक स्वच्छ राजनीति की जाए और देश भर में एकता का माहौल कायम हो। लेकिन झारखंड, जम्मू कष्मीर और दिल्ली में होने जा रहे चुनाव में यह कितना नियंत्रण में रहेगा, यह देखने वाली बात होगी। लेकिन इतना जरूर है कि सरकार का लक्ष्यों को पूरी करने की प्रतिबद्धता एवं सबका साथ-सबका विकास जैसे नारे को मूर्त करने की सरकार की इच्छा भारतीय जनता की उम्मीदों को जिंदा व कायम रखा है।
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