Delhi me sambhavit chunav ka jimmedar kaun ? - सुस्वागतम्
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Delhi me sambhavit chunav ka jimmedar kaun ?

दिल्ली में संभावित चुनाव का जिम्मेदार कौन?

निर्भय कर्ण
               
 दिल्ली की विधानसभा भंग होते ही यहां पर चुनाव का रास्ता साफ हो गया है। दिल्ली के इतिहास में यह पहला मौका है जब यहां पर किसी विस को उसका कार्यकाल पूरा किए बगैर ही भंग कर देना पड़ा। इससे सबसे ज्यादा नुकसान दिल्ली की जनता को उठाना पड़ रहा है। ऐसे में सवाल उठना लाजिमी है कि एक साल के दौरान दिल्ली में दूसरी बार होने जा रहे चुनाव के लिए कौन जिम्मेदार है?

                ज्ञात हो कि दिसंबर, 2013 में दिल्ली में विधान सभा के लिए चुनाव हुए थे जिसमें किसी भी दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं हो सका था लेकिन संख्या बल के हिसाब से भारतीय जनता पार्टी अव्वल रही। 31 सीटों पर जीत के साथ भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी लेकिन बहुमत से चार सीटें पीछे रहने की वजह से वह सत्ता में आने से वंचित रह गयी। इस परिस्थिति में आम आदमी पार्टी ने कांग्रेस विधायकों के समर्थन से दिल्ली में सरकार बनाया भी लेकिन आप भी ज्यादा दिनों तक सरकार नहीं चला सकी। मात्र 49 दिनों तक सरकार में रहने के बाद भाजपा और कांग्रेस के विरोध के चलते दिल्ली विधानसभा में लोकपाल विधेयक पारित नहीं होने पर अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व वाली आप सरकार ने 14 फरवरी, 2014 को इस्तीफा दे दिया था। अंततः दिल्ली में 17 फरवरी, 2014 को राष्ट्रपति शासन लगाया गया।
  
             चुनाव पर खर्च की पूर्ति जनता के पैसों द्वारा किया जाता है। दुबारा चुनाव की सुगबुगाहट के माहौल में दिल्ली की जनता अपने आप को ठगा महसूस कर रही है। गौर करें तो आप कांग्रेस के सहयोग से 5 साल के मुख्यमंत्री कार्यकाल को पूरा कर सकती थी जिससे न केवल दिल्ली का भला होता अपितु दिल्ली एक बार फिर प्रगति के पथ पर आगे बढ़ जाता। लेकिन अरविंद केजरीवाल की अतिमहत्वाकांक्षी हो जाने से दिल्ली की जनता सड़कों पर आ गयी और यहां का विकास अवरूद्ध हो गया। यह बखूबी समझा जा सकता है कि जिस प्रकार यदि माता-पिता का साया अपने बच्चों पर बना रहता है तो बच्चे का विकास अपनी रफ्तार में होता रहता है लेकिन यदि माता-पिता का आशीर्वाद बच्चों पर से उठ जाता है तो उसका विकास अवरूद्ध हो जाता है। कमोबेश दिल्ली का भी हाल कुछ ऐसा ही रहा।

               दुबारा होने जा रहे चुनाव के घटनाक्रम से न केवल जनता बल्कि सभी चुने गए विधायकों को नुकसान हुआ है। दिल्ली की जनता पर फिर से करीब 75-80 करोड़ रूपए का बोझ बढ़ गया। दिसंबर, 2013 में ही दिल्ली विधानसभा चुनाव पर करी 80करोड़ रूपए खर्च हुआ था। जबकि पहली बार विधायक बने 48 नेताओं का खर्च सीमा बढ़ गया। बीते 11 महीनों में इन्हें 09,18,500 रूपए मिले जबकि चुनाव आयोग द्वारा खर्च की सीमा को ही मानक मान लिया जाए तो भी करीब-करीब 14-14 लाख रूपए तो चुनाव लड़ने में ही इनका खर्च हो गया। जबकि चुनाव में असली खर्च करोड़ों में होता है। ऐसे में 11 महीनों में ही विधायकों की कुर्सी चले जाने पर वे महज 7500 रूपए की पेंशन पाने के हकदार रह जाएंगे। ज्ञात हो कि दिल्ली में विधायकों को वेतन 83,500रूपए दिए जाते हैं।

                दिसंबर, 2013 के चुनाव में जहां दिल्ली में आप की लहर थी तो वर्तमान परिवेश में मोदी’ लहर। पिछला चुनाव भी मुख्यतः आप और भाजपा के बीच ही लड़ा गया था लेकिन दिसंबर, 2013 से लेकर नवंबर, 2014 के बीच स्थितियां काफी बदली है। फिर भी दिल्ली के आगामी चुनाव में भी असली घमासान इन्हीं दो दलों के बीच होने जा रहा है जिसमें भाजपा का पलड़ा कहीं अधिक भारी नजर आता है। एक साल पहले जनता का जो अरविंद केजरीवाल के प्रति सहानुभूति का थावह अब टूट चुका है। इसका अंदाजा अरविंद केजरीवाल के आत्मविष्वास में तेजी से कमी आई से ही लगाया जा सकता है तो दूसरी तरफ मोदी के नेतृत्व में भाजपा आत्मविश्वास से लबरेज है। इस परिस्थिति में यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मोदी सरकार के स्वच्छ व विकास की राजनीति के आगे सब धराशायी नजर आते हैं। जबकि कांग्रेस अपने जनाधार को बचाने व बढ़ाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाने के लिए मैदान में उतरेगी।
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