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अबकी बार किसकी सरकार

अबकी बार किसकी सरकार
निर्भय कर्ण
भारत में 17वें लोकसभा के लिए 7 चरणों में चुनाव हो रहा है। इसमें 89 करोड़ 88 लाख मतदाता अपना मत डालेंगेइस मायने में यह दुनिया का सबसे बड़ा चुनाव कहा जा रहा है जिसके लिए 10 लाख मतदान केंद्र की व्यवस्था की गयी है। साथ ही ईवीएमवीवीपैट आदि में कुल मिलाकार एक करोड़ से ज्यादा कर्मचारी चुनाव को सफलता दिलाएंगे। इससे पहले लगातार ईवीएम पर प्रश्नचिन्ह खड़े किये जाते रहे। इसी के मद्देनजर इस बार चुनाव आयोग ने सभी ईवीएम के साथ वीवीपैट की व्यवस्था किया है ताकि किसी को भी चुनाव परिणामों पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करने का कोई आधार न हो। इतना ही नहीं जीपीएस माध्यम से सभी मशीनों पर नजर रखी जा रही है जिससे यह आसानी से पता चल जाएगा कि कौन मशीन कहां है। कुल मिलाकर देखा जाए तो 66 दिनों तक चलने वाला यह चुनाव अपने आप में काफी महत्वपूर्ण और हाईटेक है।

इस लोकसभा चुनाव में एक ही महत्वपूर्ण सवाल सबों के जेहन में घूम रहा है कि क्या नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार दुबारा सत्ता में आ पाएगीयह सवाल इसलिए भी सबसे अधिक मायने रखता है कि एनडीए ही ऐसी पार्टी है जिसमें प्रधानमंत्री पद की रेस में नरेंद्र मोदी के अलावा और कोई नाम दूर-दूर तक नजर नहीं आता। वहीं यूपीए में राहुल गांधी जो कि सभी राज्यों में गठबंधन नहीं कर पाई। नतीजतन वह अधिकतर राज्यों में अकेले ही चुनाव लड़ रही है। माना कि चुनाव परिणामों से पहले विपक्ष कोई मजबूत गठबंधन बनाने में नाकाम रहा लेकिन यदि परिणामों के बाद अगर वह बहुमत के करीब रहेगी और महागठबंधन बनता भी है तो सवाल यही रहेगा कि आखिर इस महागठबंधन का नेता कौन होगा जिसे प्रधानमंत्री पद दिया जा सके। जाहिर है सिर फुटौवल की नौबत आएगी क्यूंकि कोई भी अपने आपको दूसरों से कम नहीं समझता। यही कारण है कि नरेंद्र मोदी जैसा राष्ट्रव्यापी व सर्वमान्य नेता विपक्ष के पास नहीं है। बांकि तो 23 मई को यह साबित होगा कि चुनाव परिणाम नरेंद्र मोदी जैसा सर्वमान्य नेता को प्रधानमंत्री पद देती है या फिर विपक्ष के लिए सिर फुटौवल की स्थिति पैदा करेगी। 
1.https://www.launchmantra.com/2019/04/abki-bar-kiski-sarkar.html
फिलहाल चुनावी समीकरणों की बात कर लेते हैं। पुलवामा हमले से पहले तक सरकार के विरूद्ध देश में अच्छा-खासा माहौल बनाने में विपक्ष सफल साबित हो रहा था। यही वजह रहा कि कांग्रेस ने हाल में हुए तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव जीत लिया था। ऐसे में लगा कि विपक्ष लोकसभा चुनाव में जोरदार प्रदर्शन करेगी। लेकिन उसके मंसूबे पर पानी तब फिर गया जब पुलवामा हमले के बाद नरेंद्र मोदी सरकार ने दुबारा सर्जिकल स्ट्राइक कर आतंकियों से बदला ले लिया। इसके बाद पूरे देश में फिर से मोदी-मोदी के जयकारा लगने लगा। राष्ट्रवाद के नाम पर बीजेपी ने चुनावी समीकरण को अपने पक्ष में करने का भरपूर कोशिश किया। इतना तो तय हो गया कि कि कम से कम हिंदी राज्यों में तो उसने अपने नुकसान को काफी कम कर लिया है और कांग्रेस के साथ-साथ सभी क्षेत्रीय दलों को भी अपनी रणनीति पर दोबारा सोचने पर मजबूर कर दिया। जनता को भी लगने लगा है कि देश को मजबूती नरेंद्र मोदी सरकार ही दे सकती है यदि उसके हाथों को मजबूत किया जा सके क्यूंकि मोदी का कोई विकल्प ही नहीं है।

लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि 2014 जैसा चुनाव 2019 का नहीं है। 2014 में बड़ी संख्या में मुख्यतः सत्ता विरोधी लहर सबसे ज्यादा हावी रहा। नतीजतन यह हुआ कि भाजपा ने मोदी के नेतृत्व में बाजी मारते हुए लगभग 90 फीसदी सीटें जीत लिया। सबसे ज्यादा भाजपा ने उत्तर प्रदेशबिहारराजस्थानमध्य प्रदेशझारखंडछत्तीसगढ़हरियाणाहिमाचल प्रदेशदिल्लीउत्तराखंड और गुजरात में अच्छा प्रदर्शन किया। भाजपा ने अकेले इन 11 राज्यों में 216 सीटें जीती थी।
मौजूदा लोकसभा चुनाव में एक चीज तो स्पष्ट हो गया है कि बिना राज्यों में गठजोड़ किये दिल्ली की सत्ता पर बैठना मुमकिन नहीं है। यही कारण है कि चाहे एनडीए हो या यूपीए हो या अन्य सभी को क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन करने पर मजबूर होना पड़ता है। क्षेत्रीय दलों से गठबंधन संबंधित राज्यों में स्थानीय मुद्दे ज्यादा प्रभावी होते हैं। राष्ट्रीय मुद्दा कुछ खास लुभा नहीं पाता। और सर्जिकल स्ट्राइक को छोड़कर ऐसी कोई लहर या मुद्दा नहीं है जो सभी 29 राज्यों और सात केंद्रशासित प्रदेशों में प्रभावी हो सके। राज्यों से गठजोड़ करने में एनडीए अव्वल रही तो वहीं कांग्रेस फिसड्डी ही साबित रही है।
वैसे भी यह गौर करने वाली बात है कि भारत में अब सचमुच में राष्ट्रीय दल नाम की कोई चीज नहीं रह गई है। जिसे हम राष्ट्रीय दल कहते हैं चाहे वो भाजपा हो या कांग्रेसक्षेत्रीय दल बनकर रह गये हैं। अन्य क्षेत्रीय दलों के अपेक्षा इनमें यही अंतर है कि इनकी मौजूदगी कुछ ज्यादा राज्यों में है। भाजपा सात से लेकर नौ राज्यों वाली राष्ट्रीय पार्टी हैतो कांग्रेस केवल छह राज्यों- मध्य प्रदेशराजस्थानछत्तीसगढ़केरलपंजाबऔर कर्नाटक वाली राष्ट्रीय पार्टी है। शेष में गठबंधन के साथ है या फिर बिल्कुल ही नहीं है। यह भी कटू सत्य है कि राष्ट्रीय दल अपने प्रादेशिक नेताओं को मजबूत होते देखना पसंद नहीं करते।
राष्ट्रीय दलों का अहं कभी-कभी क्षेत्रीय दलों के आगे नतमस्तक हो जाता है जैसे कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश में महागठबंधन नहीं बना पाई और कई कोशिशों के बाद भी आम आदमी पार्टी से भी गठबंधन नहीं कर पाई। जिसका नतीजा यह होता है कि उन राज्यों में चुनावी समीकरण त्रिकोणीय हो जाता है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि कांग्रेस अपने दम पर बीजेपी को इस समय हरा नहीं सकती। इसलिए यदि  विपक्ष एकजुट रहता तो जरूर मोदी के लिए एक चुनौती होता।
गठबंधन की मजबूरी किस कदर हैइस बात का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि बिहार में भाजपा ने जेडीयू को 2014 से अधिक सीटें दे दी वहीं महाराष्ट्र में भी शिवसेना के प्रति अमित शाह ने उदारता दिखाई। वहीं छोटे समूहों से गठजोड़ की कोशिशें यह साबित करती है कि राष्ट्रीय दल लोकसभा चुनाव जीतने के लिए किस कदर प्रयास कर रही है।
बिहार की बात की जाए तो एनडीए को फायदा होता दिख रहा है। कांग्रेस का वैसे भी बिहार में कोई खास आधार नहीं था। ऊपर से आरजेडी में दो फाड़ और लालू का जेल में रहना यूपीए को मुश्किल में डालने के लिए काफी है। कुल मिलाकर बिहार में एनडीए यूपीए पर भाड़ी पड़ता नजर आ रहा है। वहीं लोकसभा सीटों में सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश में एनडीए कमजोर दिख रही है। एक तो एंटी-इनकंबेसी का असर तो दूसरी ओर सपा-बसपा का मजबूत गठबंधन जिसका यूपी में वोट बैंक काफी अच्छा-खासा है। इसके अलावा कांग्रेस की प्रियंका गांधी का जलवा भी वोट बैंक को प्रभावित करेगा। हालांकि प्रियंका गांधी का जलवा एनडीए को नुकसान पहुंचाएगा या सपा-बसपा गठबंधन कोये तो आनेवाला वक्त ही बताएगा। फिलहाल भाजपा की सबसे बड़ी चिंता बसपा और सपा के बीच के गठबंधन का हैजो विपक्ष की एकता को बढ़ाता है और उत्तर प्रदेश जैसे महत्वपूर्ण राज्य में भाजपा के वोट को कम करने का माद्दा रखती है। हालांकि यह तय माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में 2014 के चुनाव में राज्य में पार्टी को मिली 74 सीटों की तुलना में उसकी सीटों में बड़ी गिरावट हो सकती है।
वहीं मध्यप्रदेशछत्तीसगढ और राजस्थान में कांग्रेस की सरकार बने करीब 5 महीना हो गया है तो हो सकता है वहां एंटी-इनकंबेसी का असर हो। इससे पहले यहां पर विधान सभा चुनावों में भाजपा ने कांग्रेस को जबरदस्त टक्कर दी थी लेकिन अंततः दुबारा सत्ता पर काबिज नहीं हो सकी। मध्य प्रदेशराजस्थानछत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में हार के बाद भी बीजेपी मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस से थोड़ा फायदे में जरूर दिखती है।
इसके अलावा झारखंडहरियाणा जैसे राज्यों में देखना होगा कि एनडीए व यूपीए का रूझान क्या आता है। वैसे बीजेपी को इन दोनों जगहों पर एंटी-इनकंबेसी का खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। यदि राष्ट्रवाद मुद्दा ज्यादा लहर नहीं बन पाया तो यहां बीजेपी को नुकसान उठाना पड़ सकता है। लेकिन यह भी हमें मानना होगा कि बीजेपी को गुजरातछत्तीसगढ़राजस्थानहिमाचल प्रदेशमध्य प्रदेश और उत्तराखंड में ज्यादा खतरा नहीं होगा बशर्ते कुछ नाटकीय मोड़ ना आ जाए।
यह सत्य है कि हिंदीभाषी राज्यों में बीजेपी अपने 2014 के प्रदर्शन को रिपीट नहीं करने जा रही खासकर वहां जहां दो-तरफा मुकाबला है। वहीं त्रिकोणीय मुकाबला में बीजेपी बेहतर कर भी सकती है। वहीं पंजाबजम्मू कश्मीर और दिल्ली में एनडीए को बेहतर परिणाम लाने की उम्मीद है। पश्चिम बंगाल में कांग्रेस तृणमूल कांगे्रस के साथ गठबंधन नहीं कर पायी जिससे वहां त्रिकोणीय मुकाबला होता दिख रहा है। लेकिन यहां असली टक्कर तृणमूल और बीजेपी के बीच ही है।
              दक्षिणी राज्यों के अपने क्षेत्रीय समीकरण हैं फिर चाहे वह तमिलनाडुतेलंगानाआंध्र प्रदेश और केरल हो। कर्नाटक में भाजपा का प्रभाव है लेकिन कांग्रेस-जनता दल (एस) गठबंधन वहां भाजपा के प्रभाव को खत्म कर सकता है। ऊपर से कांग्रेस के सुप्रीमों द्वारा तमिलनाडु के वायनाड से चुनाव लड़ने से कांग्रेस को दक्षिण में वोट प्रतिशत बढ़ने की गुंजाइश दिखती है। इन राज्यों में बीजेपी की स्थिति करीब-करीब 2014 जैसी ही है सिर्फ केरल में बीजेपी का समर्थन बढ़ा है लेकिन लोकसभा सीटें जीतने के लिए काफी नहीं है।
तमाम कोशिशों के बावजूद राष्ट्रीय स्तर पर कोई भी गठबंधन नहीं बन पाया जो एक नेता यानि मोदी को हटाने’ की राजनीति कर रहे थे। इस तरह के गठबंधन नहीं होने पर नेताओं का अब बयान आ रहा है कि चुनाव बाद अब विरोधी राष्ट्रीय गठबंधन खड़ा हो जाएगा।
यह बिल्कुल सत्य है कि अंतिम राष्ट्रीय नेता इंदिरा गांधी थीजो लगभग सभी राज्यों में अपना दबाव रखती थी। और चुनाव जीतने का माद्दा उनमें था। उनके जाने के बाद दिसंबर 1984 के असामान्य चुनाव को छोड़ दें तो न तो राष्ट्रव्यापी नेता निकल कर आया और न ही कोई सर्वमान्य दल। राज्यों में वहां के क्षेत्रीय ताकतवर नेता और जातिगत करिश्मा ने चुनाव पर कब्जा कर लिया।
नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय सुरक्षा और पाकिस्तान से जुड़े आतंकवाद की बात करके एंटी-इनकंबेसी को कम करने की भरपूर कोशिश कर रहे हैंलेकिन वास्तव में यह उतना काम करता नहीं दिख रहा है। 2014 के चुनाव में भी नरेंद्र मोदी मुख्य विषयवस्तु थे और 2019 के इस चुनाव में वही मुख्य मुद्दा है। विपक्ष को 2014 के चुनाव में मोदी को सत्ता में आने से रोकना था तो वहीं 2019 में उन्हें सत्ता से किसी तरह बेदखल करना है। सभी विपक्षियों का एक ही नारा है कि मोदी को हटाओ। लेकिन यह संभव होता प्रतीत नहीं हो रहा है। चाहे कितना भी क्षेत्रीय मुद्दों और मोदी के नाकामियों का प्रचार होमोदी पीछे हटते नजर नहीं आ रहे हैं। वहीं विपक्ष पूरी ताकत से रोजगार, 15लाख का वादाराफेल समेत विभिन्न मुद्दों को हवा देने की कोशिश कर रहा है। लेकिन उसे इसमें पूर्ण सफलता हासिल होता नहीं दिख रहा। फिलहाल परिणाम के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है। असलियत तो 23 मई को पता चल ही जाएगा कि आखिर मोदी जी सत्ता में दुबारा बने रह पाते हैं या उन्हें हार का कड़वा स्वाद चखना पड़ता है।
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