Bikhrao Ke Kagar Par Sanyukt Pariwar (International Family Day-15th May) - सुस्वागतम्
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Bikhrao Ke Kagar Par Sanyukt Pariwar (International Family Day-15th May)

(15 मई- अंतर्राष्ट्रीय परिवार दिवस)
बिखराव के कगार पर संयुक्त परिवार?

सृष्टि का आधार ही परिवार होता है और परिवार का मतलबढ़ेर सारे बंधन एक ऐसा अटूट बंधन जो परिवार के प्रत्येक सदस्यों को आपस में जोड़कर रखती है चाहे कैसी भी परिस्थितियां हो। इसमें एक-दूसरे के प्रति सुरक्षा के वादे-इरादे होते हैं। इन रिश्तों की डोर से व्यक्ति मीलों दूर रहने के बावजूद जुदा नहीं हो सकता। इसमें कई रिश्ते  होते हैं जैसे कि पति-पत्नी, माता-पिता, बेटा-बेटी, दादा-दादी, पोता-पोती, भाई-बहन, चाचा-चाची, भतीजा-भतीजी, मामा-मामी, भांजा-भांजी, नाना-नानी, आदि। लेकिन आधुनिकता ने इन सभी रिश्तों को केवल कमजोर किया है बल्कि ईर्ष्या और वैमनस्यता को भी इन रिश्तों के बीच ला खड़ा किया है। इन बातों को महसूस की जा सकती है जिसमें आप पाएंगे कि वो प्यार, वो दुलार तेजी से बदलते दौर में कहीं गुम-सी गयी है। आखिर ऐसी क्या वजहें हैं कि आज के रिशतें केवल नाममात्र के रह गए हैं जिसमें व्यक्ति के अंदर प्यार कम दिखावा ज्यादा हो गया है?

विश्व के एशियाई खासकर भारतीय/नेपाली समाज में गृहस्थ जीवन की इतनी पवित्रता, स्थायीपन और पिता-पुत्र, भाई-भाई और पति-पत्नी के इतने अधिक स्थायी संबंधों का दूसरा उदाहरण नहीं मिलता। संयुक्त परिवार की नींव एशियाई मूल के लोगों में शुरुआत से ही काफी मजबूत थी वहीं एशिया महाद्वीप को छोड़ दिया जाए तो बाकी देशों में संयुक्त परिवार की नींव काफी कमजोर और नहीं के बराबर थी जो आज भी विद्यमान है।संयुक्त परिवारको दुनियाभर में आदर्श माना जाता है। इस परिवार के अंतर्गत माता-पिता, बेटा-बेटी, दादा-दादी, चाचा-चाची, आदि एक साथ एक छत के नीचे जीवन व्यतीत करते हैं। एक जमाना था जब भारतीय समाज में संयुक्त परिवार का बोलबाला और एकल परिवार के लिए कोई स्थान नहीं था। उस दौर में एक परिवार में कम से कम दो-तीन पीढ़ी के लोग एक साथ रहा करते थे, जिसमें परिवार के सभी सदस्यों का योगदान होता था। प्यार-दुलार की भावनाएं प्रत्येक सदस्यों में कूट-कूट कर हुआ करती थी। एक-दूसरे के लिए जान तक देने को तैयार रहते थे। किसी भी शुभ अवसरों पर सदस्यों की खुशी  देखते ही बनती थी, दिल खुशी के मारेे गद्गद् हो जाया करता था जिसमें किसी ईर्ष्या, घृणा, वैमनस्यता के लिए कोई जगह नहीं थी। लेकिन समय ने जैसे ही करवट ली, संयुक्त परिवार की परिभाषा बदलने लगी। नए परिभाषानुसार, लोग यह मानने लगे कि संयुक्त परिवार वह है जिसमें दादा-दादी, माता-पिता एवं बच्चें हों और इस प्रकार एकल परिवार की संरचना होती चली गयी और संयुक्त परिवार बिखरने लगा। आधुनिकतम परिभाषा देखें तो एकल परिवार को और छोटा कर दिया गया जिसमें केवल माता-पिता उनके बच्चें एक साथ एक छत के नीचे रहते हों। पश्चिमी देशों से बहती हुई यह हवा अब एशियाई घरों में भी बहने लगी है। शहर तो शहर अब गांव भी इन चीजों से अछूता नहीं रहा।

यहां सवाल उठता है कि आखिर ऐसी क्या परिस्थिति उत्पन्न हो गयी कि लोग एकल परिवार पर अत्यधिक जोर देने लगे। देखा जाए तो आज के दौर में रिश्तों में कड़वाहट की असली वजह धन है जो कहीं कहीं एकल परिवार को बढ़ावा देती है। एकल परिवार का अस्तित्व में आने के पीछे आधुनिकतम सोच सबसे ज्यादा जिम्मेदार है। परिवार पर जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करने का नाराहम दो-हमारे दोहावी होने लगा है। अधिकतर नारियां अपने पति बच्चे के अलावा और किसी को परिवार में शामिल करने से सख्त परहेज करने लगी है। ऐसी सोच के लोगों का मानना होता है कि अपनी जिंदगी में अपने पति के अलावा किसी और की दखलअंदाजी उन्हें पसंद नहीं। कुछ ऐसे भी हालात उत्पन्न होते हैं जिसमें माता-पिता अपने बेटे-बहू के साथ रहने से इंकार कर देते हैं। ऐसे माहौल में अकेले रहने से समाज को काफी कुछ खोना भी पड़ रहा है। परिवार से अलग रहने पर बच्चों को तो बड़ों का साथ मिल पा रहा है जिसकी वजह से नैतिक संस्कार दिन--दिन गिरते ही जा रहे हैं और दूसरा, इससे समाज में बिखराव भी होने लगा है। बच्चे जब परिवार में अपने माता-पिता का सानिध्य नहीं प्राप्त कर पाते हैं तो वे अपनी बातों को साझा करने के लिए किसी अन्य को तलाशने लगते हैं। वे परिपक्व भी नहीं होते ऐसे में थोड़ी-सी भी सहानुभूति मिलने पर अपना दिले बयां करने लगते हैं। शातिर लोग भावुक बच्चों की भावनाओं का फायदा उठाने लगते हैं और यहीं से बच्चों में बिखराव उत्पन्न होने लगता है। माता-पिता के पास इतना समय नहीं होता कि वे देखें कि उनके बच्चे क्या कर रहे हैं? परिवार में खुद पति-पत्नी पैसे कमाने की आपाधापी में इस कदर व्यस्त रहते हैं और कि बच्चों के लिए समय निकालने के लिए उनके पास तो वक्त होता है और ही शरीर में इतनी ऊर्जा शेष रह जाती जिससे कि वे दिन भर के अपने सुख-दुःख बांट सके। और इस प्रकार बच्चों के दिल की बात दिल में ही रह जाती है। माता-पिता के साथ होने से जहां परिवार अत्यधिक कुशलता से किसी संकट से पार पा लेता है तो वहीं बच्चे को दादा-दादी का भरपूर समय मिल जाता है जिससे केवल बच्चों की देखभाल हो जाती है बल्कि बच्चों का अनुशासित और कुशल होने में भी सहायता मिलती है। इसके साथ-साथ माता-पिता अपने आप को असुरक्षित,असहाय समझते हुए बच्चों के साथ खुशी-खुशी जीवन व्यतीत करने में अधिक सुकून महसूस करते हैं।

एकल परिवार की सोच रखने वालों का मानना है कि इस प्रकार के परिवार से फायदे कम लेकिन नुकसान अधिक है। जब कोई विपदा आती है या कई ऐसे मौके आते हैं जिस समय अन्य सदस्यों की सख्त जरूरत होती है। चूंकि वो एकल परिवार से शारीरिक रूप से दूर हो चुके होते हैं लेकिन उनकी कमी हर पल महसूस की जाती है। जहां नारियां एकल परिवार को ज्यादा सुरक्षित मानती है वहीं पुरूष को एकल परिवार की मानसिकता वजूद से खतरा महसूस होता है। प्रायः पुरूष कभी नहीं चाहते कि वह अपने माता-पिता को छोड़कर केवल पत्नी बच्चों के साथ रहें।

परिवार पर बढ़ रहे संकट और बिखराव को ध्यान में रखते हुए ही संयुक्त राष्ट्र ने प्रत्येक वर्ष 15 मई को विश्व परिवार दिवस मनाने का निर्णय लिया था ताकि समाज में परिवार के महत्व को जनता तक पहुंचाया जा सके। साथ ही प्रत्येक सदस्य का यह फर्ज होता है कि इस रिश्तें की गरिमा को बनाए रखें। संयुक्त परिवार जिसे हम पीछे छोड़ते जा रहे हैं और आगे बढ़ने में ही अपनी प्रगति देखते हैं, इस सोच को बदलने की जरूरत है। अपने अंदर जरा झांक कर देखिये तो पता चलेगा कि भटकते बचपन, बच्चों के प्रति असुरक्षा और उनके संस्कारों के प्रति जिम्मेदारी से संयुक्त परिवार से ही हासिल किया जा सकता है। अपने माता-पिता, दादा-दादी की छत्रछाया में ही बच्चों के अंदर सुरक्षा की भावना का विकास हो सकेगा। अन्यथा उनके  गलत रास्तों पर जाने की आशंका प्रबल हो जाएगी। संयुक्त परिवार से केवल बच्चे अपने को सुरक्षित महसूस कर सकेंगे बल्कि आप भी निश्चिंत रहेंगे। यदि फिर भी आप एकल परिवार में रहने पर मजबूर हैं तो अपने बच्चों के लिए काम से समय निकालिये और उन्हें माता-पिता सहित एक सुरक्षित वातावरण दें जिससे कि उनका सर्वांगीण विकास हो सके।


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