Mahilayen swayam kuritiyon ka bahishkar karen ( on occasion of world women day-8 March)
महिलाएं स्वयं कुरीतियों का बहिष्कार करें
निर्भय कर्ण
एक तरफ दुनिया महिला सशक्तिकरण की बात करती है लेकिन महिला सशक्त हो या न हो लेकिन दुनिया की आधी आबादी यानि की महिला निःशक्तता की ओर ही अग्रसर है। ऐसा इसलिए क्योंकि लाख कोशिशें करने और तमाम कानून मौजूद होने के बाद भी महिला के प्रति हिंसा की घटनाएं प्रायः देखने-सुनने को मिलती ही रहती है।
हाल ही में मैं ऑटो से अपने गंतव्य की ओर जा रहा था। उसमंे बैठी एक महिला के माता-पिता उसके एक दिन के बेटे को अपनी गोद में लिए अपने दुःख का साझा कर रहे थे। बातचीत के दौरान, उन्होंने बताया कि ‘‘मेरी बेटी कल अस्पताल में इस बेटे को जन्म देने के बाद स्वर्ग सिधार गयी लेकिन मेरा जमाई या उसके परिवार का कोई भी सदस्य अपने नए जन्मजात शिशु व मेरी बेटी को कोई देखने नहीं आया और यहां तक कि अपने नए बच्चे को भी अपनाने से मना कर दिया। अब हम यानि की नाना-नानी ही इस बच्चे का पालन-पोषण करेंगे।’’ इन बातों को सुनकर मेरा दिमाग सन्न से रह गया और सोचने लगा कि आखिर कैसी दुनिया है, हम आधुनिक युग में तो जी रहे हैं लेकिन अभी भी न जाने किन दकियानुसी सोच को हम अपने समाज में लगातार ढ़ो रहे हैं। जब बेटा के जन्म लेने के बाद भी उसका परिवार उसे नहीं अपनाया और बीवी के मरने के बावजूद भी उसके दाहसंस्कार के कर्मों को भी पूरा नहीं किया, तो आखिर उस परिवार की सोच क्या होगी, वह लड़का आखिर आगे आकर अपने बच्चे को क्यों नहीं अपनाया। जब पत्नी मर गयी तो देखने नहीं आया तो मरने से पहले उसकी स्थिति उस परिवार में क्या होगी, यह सोचनीय है।
ऐसे तमाम अनगिनत घटनाएं रोज होती है और इस घटनाओं को विराम लगाने के लिए तमाम कोशिशें भी जारी है लेकिन असलियत यही है कि इसमें कोई खास परिवर्तन नहीं हो रहा। हम अपनी सोच को वर्तमान समय के अनुसार विकसित नहीं कर पा रहे जिसमें महिलाओं को भी पुरुष की भांति आजादी मिले और उसके साथ पक्षपात न हो। देखा जाए तो 1960 के बाद से लेकर महिला सशक्तिकरण की चर्चा लगातार सुर्खियों में रहा है। महिला सषक्तिकरण का मतलब है- महिला सामाजिक,आर्थिक और राजनैतिक रूप में स्वावलंबी, आत्मविश्वासी व अपनी अस्मिता के प्रति सकारात्मक विचारों को रखे जिससे महिला हर परिस्थिति के समक्ष मुकाबला करने में सक्षम हो। हर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विकास कार्यों में उनकी भागीदारी सुनिष्चित हो। लेकिन आंकड़े और हकीकत यहीं बयां करते हैं कि कितना भी महिला सषक्तिकरण हो जाए लेकिन जब तक हम अपने मन से महिला के प्रति गलत व दकियानुसी अवधारणाओं को निकाल कर सषक्त नहीं होंगे, तब तक कुछ नहीं हो सकता।
बीते दषकों के दौरान भी लोगों की इस धारणा में कोई खास परिवर्तन नहीं हो सका है कि नारी -संपत्ति है, संभोग और संतान की इच्छा पूरी करने का साधन मात्र व उपभोक्तावादी संस्कृति में उपभोग्य वस्तु है। इस पुरुष प्रधान समाज में नारियां भावनात्मक हिंसा का शिकार, कहीं व्याभिचार, कहीं बलात्कार, पति की गालियां, पीहर के लिए अपशब्द, दुश्चरित्रा की संज्ञा, अवहेलना, अवमानना, प्रताड़ना, यौनाचार की घटना,अमानवीय व्यवहार, दोहरी भूमिका का तनाव, सामाजिक कुसंस्कार के पिंजड़े में बंद,पराया धन का तमगा यानि की नारियां अनर्गल और बर्बर परंपराओं से पीड़ित हैं।
यही वजह है कि भारत से लेकर नेपाल तक महिलाओं को हिंसा का षिकार होना पड़ता है। नेपाल की कानून व्यवस्था इस कदर जर्जर है कि अनेकों घटनाओं का तो कुछ पता ही नहीं चल पाता और न जाने कितनी बेटियां व बहुएं घरेलू हिंसा का षिकार होती रहती हैै क्योंकि सच पूछिए तो डेढ़ गुना मामले ऐसे होते हैं, जिनमें या तो महिलाएं पुलिस के पास जाती नहीं है या फिर केस दर्ज ही नहीं होता। शिकायत ना करने के पीछे एक मात्र कारण होता है वो है बदनामी। कुछ कम ही सही लेकिन ऐसे हालात भारत सहित पूरे एषिया में विद्यमान हैै। ऑफिस से लेकर बाजारों तक यहां तक कि अपने घरों में भी न जाने कितनी लड़कियां छेड़छाड़ का रोजाना षिकार होती रहती है। बच्चियों, महिलाओं के साथ दुश्कर्म, छेड़छाड़ और छींटाकषी जैसी घटनाएं सबसे ज्यादा घरों मंे ही होती हैं। भारत में इन घटनाओं की षिकार 23 प्रतिषत विवाहित महिलाएं होती है जबकि 77 प्रतिषत अविवाहित महिलाओं को इन समस्याओं से दो-चार होना पड़ता है। दुश्कर्म पीड़ित बेटियों एवं महिलाओं को आजीवन गहन मानसिक आघात झेलना पड़ता है जिसमें से कईयों को तो सामाजिक बहिश्कार सामना करना पड़ता है। कुछ आत्महत्या के रास्ता को अपना लेती हैं तो कुछ मजबूरीवष वेष्यावृत्ति के धंधे को।
आखिर इसके पीछे कौन जिम्मेदार है-सरकारी मशीनरी या फिर निरक्षरता या हमारी सामाजिक मानसिकता या नारी स्वयं। कुल मिलाकर ये सभी तत्व जिम्मेदार है और इन सबसे मुक्ति पाना अत्यंत आवश्यक है नहीं तो हमलोग हर बार महिला हिंसा उन्मूलन दिवस मनाते रहंेगे और प्रण लेते रहेंगे लेकिन होगा रत्ती भर कुछ भी नहीं और महिलाओं के खिलाफ हिंसा जारी रहेगी। हिंसा रोकने के लिए जरूरी है- सोच में बदलाव, उचित शिक्षा, सही परवरिश व स्वावलम्बन। विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि महिला की साक्षरता दर बढ़ने से हिंसा पर नाममात्र की कमी होती है। साक्षरता के लिहाज से देखा जाए तो, भारत में 65.46 प्रतिषत महिलाएं ही पढ़ना और लिखना जानती है वहीं नेपाल मंे पुरुश साक्षरता दर 75.1 प्रतिषत के मुकाबले महिला साक्षरता दर 57.4 प्रतिषत है। इसलिए उपर्युक्त कारकों पर ध्यान देते हुए अब महिलाओं को स्वयं आगे बढ़कर इन सबसे मुक्ति पाना होगा जिससे कि उन्हें कोई कमजोर न समझ सके। अब बेटियों को स्वयं स्वावलंबन होकर अपने अधिकारों को समझना होगा और उन अधिकारों को पाना होगा क्योंकि आखिर कब तक सरकारी मषीनरी पर हम भरोसा करते रहेंगे। महिलाओं के हितों को सुरक्षा देने के लिए दर्जनों कानून दुनियाभर में मौजूद है लेकिन लोगों के मन में इसका डर नाममात्र ही है। इसलिए अकसर बलात्कार, छींटाकषी,दहेज के लिए जलाकर मार देने की घटनाएं आदि देखने व सुनने को मिलती रहती है। इसलिए महिला अब स्वयं ही अपने को सषक्त करें और कुरीतियों का मुकाबला कर अपने साथ हो रहे हिंसा और अत्याचार का करारा जवाब दें।
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