Van hai to ham hain ( Vishwa vaniki diwas 21 March ke mauke par)
(21 मार्च-विश्व वानिकी दिवस के उपलक्ष्य मंे)
वन है तो हम हैं
निर्भय कर्ण
हमारी पृथ्वी काफी बेहतरीन व सुन्दर है जिसमें सभी जीव-जंतुओं का अपना-अपना अहम योगदान व महत्ता है। हरे-भरे पेड़-पौधे, विभिन्न प्रकार के जीव-जंतु, मिट्टी, हवा, पानी, पठार, नदियां, समुद्र, महासागर, आदि सब प्रकृति की देन है, जो हमारे अस्तित्व एवं विकास के लिए आवष्यक है। वन पर्यावरण, लोगों और जंतुओं को कई प्रकार से लाभ पहुंचाते हैं। जिसमें वन हमें भोजन ही नहीं वरन् जिंदगी जीने के लिए हर जरूरी चीजें मुहैया कराती है। पेड़ पृथ्वी के लएि सुरक्षा कवच का काम करते हैं और पृथ्वी के तापमान को नियंतत्रत करते हैं। इसलिए यह कहने में कोई अतिषयोक्ति नहीं है कि वनों का मानव जीवन के अस्तित्व में अहम योगदान है।
वनों का सृजन, प्रबंधन, उपयोग एवं संरक्षण की विधा को वानिकी कहा जाता है और वनों के संरक्षण के लिए ही दुनियाभर में 21 मार्च को विश्व वानिकी दिवस मनाया जाता है। देखा जाए तो, वानिकी के सिमटने का मुख्य कारण है जनसंख्या वृद्धि। आबादी को आवास, भोजन के साथ तमाम बुनियादी चीजों की आवष्यकता होती है। भोजन एवं अन्य चीजों की जरूरत के लिए उद्योगों में बेतहाषा वृद्धि हो रही है और उद्योग के लिए जमीन सहित सभी संसाधनों की आवष्यकता पड़ती है। विकास के नाम पर पर्यावरण को अंधाधुंध क्षति पहुंचायी जा रही है। देखा जाए तोे उद्योग-धंधों, मकानों का निर्माण, अनाज उत्पादन करने एवं लकड़ियों की बढ़ती मांग जैसे मुख्य कारक ही वनों के नुकसान का प्रमुख कारक हैं।
नेपाल के 40 प्रतिशत भूभाग में वन क्षेत्र फैला हुआ है। वहीं जिला वन कार्यालय, सप्तरी के तथ्यांक अनुसार, नेपाल के सप्तरी जिला के कुल भूभाग 1,35,928.80 हेक्टेयर में 25 प्रतिशत क्षेत्र यानि कि 34,179.30 हेक्टेयर वन फैला हुआ है। यहां पर हो रहे वनों के नुकसान को लेकर सप्तरी जिला के जिला वन अधिकारी नंद लाल राय यादव ने माना कि ‘‘सप्तरी में वनों की स्थिति दयनीय है। वहीं वनों के नुकसान का प्रमुख कारण गरीबी, बेरोजगारी और चेतना की कमी है जिसे सुधारने के लिए पुरा वन विभाग लगा हुआ है। लेकिन कर्मचारियों की कमी की वजह से इस पर पूर्ण रूप से नियंत्रण नहीं हो पा रहा है।’’
वहीं भारत में 657.6 लाख हेक्टेयर यानि कि 22.7 प्रतिशत भूमि पर वन पाए जाते हैं जिसमें विगत नौ वर्शों में 2.79 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र विकास की भेंट चढ़ गये जबकि 25 हजार हेक्टेयर वन क्षेत्र प्रत्येक साल घट रहा है। यहां यह उल्लेख करना दिलचस्प है कि भारत में ही अभी 27.5 करोड़ लोग वनों से होने वाली आय पर निर्भर हैं। पुर्वानुमानों के अनुसार वन विनाष की मौजूदा रफ्तार अगर जारी रहती है तो सन् 2020 तक दुनिया की लगभग 15 प्रतिषत प्रजातियां धरती से लुप्त हो जायेगी। पेड़ों की अंधाधुध कटाई एवं सिमटते जंगलों की वजह से भूमि बंजर और रेगिस्तान मंे तब्दील होती जा रही है जिससे दुनियाभर में खाद्य संकट का खतरा मंडराने लगा है। यूएनईपी के मुताबिक, विष्व में 50-70 लाख हेक्टेयर भूमि प्रतिवर्श बंजर हो रही है वहीं भारत में ही कृशि-योग्य भूमि का 60 प्रतिषत भाग तथा अकृशित भूमि का 75 प्रतिषत गुणात्मक ह्नास में परिवर्तित हो रहा है। भारत में पिछले नौ सालों में 2.79 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र विकास की भेंट चढ़ गए जबकि यहां पर कुल वन क्षेत्रफल 6,90,899 वर्ग किलोमीटर है। वन न केवल पृथ्वी पर मिट्टी की पकड़ बनाए रखता है बल्कि बाढ़ को भी रोकता और मृदा को उपजाऊ बनाए रखता है।
वनों से जहां सजीवों के लिए भोजन तथा औशधियां तो वहीं उद्योगों को कच्चा माल प्राप्त होता है। वैज्ञानिकों की मानें तो विष्व की 25000 चिन्हित वनस्पति प्रजातियों में से महज 5000 प्रजातियों का ही औशधि प्रयोग हो रहा है जिसके एक छोटे से अंष से ही हमारी खाद्यान्न की आपूर्ति हो रही है। इनमें से लगभग 1700 वनस्पतियांे को खाद्य के रूप में उगाया जा सकता है लेकिन मात्र 30 से 40 वनस्पति फसलों से ही पूरे विष्व को भोजन उपलब्ध हो पा रहा है। वनों से जीव-जंतुओं का खासा रिश्ता होता है। यदि वन होगा तभी हमारे जीव-जंतु भी बचे रहेंगे और तभी हम मानव भी। भिन्न-भिन्न प्रकार के जीव-जंतुओं की प्रजाति में लगातार कमी आ रही है। अपने स्वार्थ के चलते मानव द्वारा किए गए प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के कारण बीते 40 सालों में पषु-पक्षियों की संख्या घट कर एक तिहाई रह गई है। आंकड़ों पर गौर करें तो पाएंगे कि 52,017 प्रजातियों में से 18788 लुप्त होने के कगार पर हैं। दुनिया के 5490 स्तनधारियों में से 78 लुप्त हो चुके हैं तो 188 अधिक जोखिम की सूची में है वहीं 540 प्रजातियों पर खतरा मंडरा रहा है और 792 अतिसंवेदनषील सूची में षामिल है।
हम सभी जानते हैं कि पर्यावरण और प्राणी एक-दूसरे के पूरक हैं। पर्यावरण और प्रकृति के पारिस्थितिक तंत्र के असंतुलन से होने वाले दुश्प्रभावों से हमारी आबादी के मस्तिश्क पर चिंता की षिकन आना लाजिमी है जिसके लिए मानव जगत ही जिम्मेदार है। इतना सबके बावजूद मानव ने ही प्रकृति संरक्षण के प्रेरणादायी उदाहरण भी प्रस्तुत किये हैं, जिनसे जैव विविधता संरक्षण के प्रयासों को मजबूती मिली है। मानव का कर्तव्य बनता है कि अपने स्वार्थ को त्यागते हुए प्रकृति से निकटता बनाकर पृथ्वी को प्रदूशित होने से बचाए तथा विलुप्त होते जंगलों और उसमें रहने वाले पषु-पक्षियों की संपूर्ण सुरक्षा की जिम्मेदारी ले। वृक्षों की संख्या में इजाफा, जैविक खेती को प्रोत्साहन, माइक्रोवेव प्रदूशण में कमी करने जैसे अहम मुद्दों पर काम करने पर विषेश जोर देना होगा। मानव को अपनी गतिविधियों पर सोच-समझकर काम करना होगा जिससे कि इंसान प्रकृति से दुबारा जुड़कर उसका संरक्षण कर सके अन्यथा वह दिन अब ज्यादा दूर नहीं जब जैव विविधता पर मंडराता यह खतरा भविश्य में हमारे अस्तित्व पर भी प्रष्नचिह्न लगा दे।
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