Kejariwal ki Badhti Aakanksha evam Chunautiyan - सुस्वागतम्
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Kejariwal ki Badhti Aakanksha evam Chunautiyan


    केजरीवाल की बढती आकांक्षा एवं चुनौतियां

निर्भय कर्ण

8 दिसंबर, 2013 को दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजों ने देश की जनता को चौंकने पर विवश कर दिया। वजह भी साफ था कि चंद दिनों में उभरी एक नई पार्टी ‘आप’ ने दिग्गज पार्टी कांग्रेस और भाजपा को चारो खाने चित्त कर दिया। स्वयं आप के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने लगातार 15 सालों से मुख्यमंत्री रही शीला दीक्षित को पटखनी देते हुए यह साबित कर दिया कि राजनीति किसी एक की नहीं होती। केजरीवाल की इस सफलता के पीछे मुख्य कारण था-शासक द्वारा जनता को पिछले एक दशक से हाशिये पर धकेलना चाहे वह महंगाई का मुद्दा हो या फिर भ्रष्टाचार का। आप ने इन मुद्दों सहित जनसमुहों की मुख्य समस्याओं को पहचानते हुए पानी और बिजली के मुद्दों को लेकर दिल्ली की जनता के नब्ज को टटोला और इस सटीक आकलन ने केजरीवाल को मुख्यमंत्री के ताज तक पहुंचा दिया। इससे उत्साहित होकर केजरीवाल की नजर अब अप्रैल-मई में होने वाली लोकसभा चुनाव पर टिक गई है और इसकी तैयारी के लिए ‘आप’ पार्टी  ने मेहनत करना भी शुरू कर दिया है लेकिन सवाल उठता है कि क्या ‘आप’ सत्ता पर आसीन सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस और तेजी से बढ़ रही भाजपा को टक्कर को चुनौती दे पाएगी?
      2012 से पहले केजरीवाल को बहुत कम ही लोग जानते थे लेकिन अन्ना हजारे का जन लोकपाल के आंदोलन ने केजरीवाल को न केवल राष्ट्रीय स्तर पर बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहचान दी और ‘आप’ पार्टी भी इसी आंदोलन की उपज थी। चूंकि इस आंदोलन से पहले केजरीवाल ने आरटीआई पर काफी कुछ काम किया था और इसकी वजह से आज आरटीआई कानून के रूप में काम कर रहा है।
      प्रो. लार्ड बाइस के अनुसार, ‘‘जहां आत्म-नियंत्रण, बुद्धिमता, नैतिकता और उत्तरदायित्व की प्रबल भावना एवं सक्रिय भागीदारी होती है, वहीं लोकतंत्र मजबूत होता है और राजनीतिक दलों के प्रति लोगों का विश्वास कायम रहता है, जबकि अकर्मण्यता, भ्रष्टाचार, व्यक्तिवाद, वंशवाद एवं लालफीताशाही आदि बुराईयों से लोकतंत्र का क्षरण होता है एवं राजनीतिक दलों की उपादेयता पर भी प्रश्नचिह्न लगता है। एक तरफ तो ‘आप’ पार्टी ने लार्ड बाइस के राजनीतिक दलों के प्रति लोगों के विश्वास को दुबारा कायम करने में सफलता प्राप्त की है इसके बावजूद असली सफलता अभी देखना बाकी होगा जब केजरीवाल और उनके साथी जनता से किए गए उन दावे और वादों को पूरा करेगी। एक बात तो स्पष्ट हो गया कि ‘आप’ के लोगों की ईमानदारी और नेकनीयता ने जनमानस को प्रभावित किया है जिसने विश्व पटल पर यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि यदि दृढ़-निश्चय और विश्वास हो तो हर चीज को बदला जा सकता है, राजनीति क्या चीज है।  वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस और बीजपी ने लार्ड बाइस के राजनीतिक दलों की उपादेयता पर प्रश्नचिह्न को अब तक साकार किया है। लेकिन बीते एक दशक में कांग्रेस ने इस मामले में बीजेपी को भी काफी पीछे पछाड़ दिया। कांग्रेस के इन बीते 10 वर्षों में जिस प्रकार भ्रष्टाचार और महंगाई बढ़ी है उससे हर तबका नाखुश और त्रस्त है। जनता राजनीति के मौजूदा कार्यकलापों से बेहद दुःखी और गुस्से में है। जनता का इसी गुस्सा और नाखुशी ने भाजपा के पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को हाथों-हाथ लिया और उनकी लोकप्रियता को हवा दी। लेकिन अब केजरीवाल की लोकसभा चुनावों की मटवाकांक्षा  ने नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता पर ग्रहण लगा दिया है। केजरीवाल के उभरने के बाद जनमानस में यह सवाल उठने लगा है कि क्या देश को स्वच्छ, साफ-सुथरी, पारदर्शी एवं नेक सरकार की आवश्यकता नहीं है। इसका जवाब काफी हद तक 'आप' की सरकार देने की कोशिश कर रही है और यही कार्यशैली अगर दो महीने तक भी चलती रही तो अवश्य ही आप पार्टी लोकसभा चुनाव को अपनी ओर रूख करने में भी सफल हो पाएगी।
      इससे पहले भी 1977 में जनता पार्टी आनन-फानन में ही बनी थी जिसका मुख्य कारण था कि उस समय का वोटर तत्कालीन सरकार से काफी खफा थी। काफी दुखी होने की वजह से ही जनता ने जनता दल को चुना क्योंकि जनता के पास अपना गुस्सा दिखाने का सुनहरा अवसर था। कुछ ऐसे ही हालात वर्तमान दौर में आप पार्टी की नजर आ  रही है।
      चुनौतियों की बात करें तो आप पार्टी के लिए भी कोई कम चुनौतियां नहीं है। दिल्ली में सरकार बनाने के लिए केजरीवाल ने कांग्रेस से हाथ मिलाया जिसका नकारात्मक असर आप पार्टी पर पड़ सकता है क्योंकि देश की जनता इसी कांग्रेस पार्टी से जो 10 सालों से केंद्र में सरकार चला रही है, परेशान और हताश हैं। इन्हीं 10 सालों में जनता सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार, महंगाई, नेतृत्वहीनता एवं संवेदनहीनता से बुरी तरीके से त्रस्त है। दूसरी बात, लोकसभा चुनाव में कुछ महीने ही अब बचे हैं और इतने कम दिनों में पूरे देश में अपनी पार्टी को खड़ा करना और चुनाव के लिए ईमानदार उम्मीदवार कि तलाश करना बहुत बड़ी चुनौती होगी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि जिस प्रकार भाजपा के पीएम उम्मीदवार घोषित नरेंद्र मोदी  ने पूरे देश में अपने पक्ष में वोटरों को करने की सकारात्मक कोशिश की है, क्या उससे केजरीवाल पार पा पाएंगे? 8 दिसंबर 2013 से पहले तक लोकसभा चुनाव को दो मुख्य राष्ट्रीय पार्टियों के बीच ही होना तय माना जा रहा था लेकिन अब परिस्थितियां बदल गई है और आप, बीजेपी और कांग्रेस को पुरजोर टक्कर देने के लिए उठ खड़े होने के लिए गतिमान है। अब देखना बाकी है कि क्या आप राजनीति की परिभाषा को नये सिरे से परिभाषित कर पाने में सफल रहेगी? क्या लोगों की इस नयी उम्मीदों पर केजरीवाल खरा उतर पाएंगे?
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