Manniyon Ko Manya Nahi Court Ka Faisla
माननीयों को मान्य
नहीं कोर्ट
का फैसला
सुप्रीम कोर्ट के एक ऐतिहासिक फैसले ने राजनीतिक गलियारों में हलचल मचा कर रख दिया है।
इस फैसले
में कहा
गया है
कि अगर
सांसदों और
विधायकों को
किसी आपराधिक
मामले में
दो साल
या इससे
अधिक और
भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत
कोई भी
सजा दी
जाती है
तो इनकी
सदस्यता खत्म
कर दी
जाएगी। यह
फैसला तत्काल
प्रभाव से
लागू कर
दिया गया
है। इसके
अंतर्गत अदालत
ने जनप्रतिनिधित्व
कानून की
धारा-8 (4) को निरस्त किया। साथ
ही कोर्ट
ने यह
भी कहा
कि इससे
पहले तक
सजा पा
चुके जिन
दागी माननीयों
ने ऊपरी
अदालतों में
अपील कर
रखी है,
उन पर
यह फैसला
लागू नहीं
होगा। इस
आदेश से
सभी राजनेताओं
में आपसी
चिंतन का
दौर जारी
है कि
आखिर इस
आदेश की
काट से
कैसे बचा
जाए?
चूंकि कोर्ट ने यह आदेश लिली थामस, चुनाव आयोग, लोकप्रहरी और बसंत कुमार चौधरी की जनहित याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान दिया। इसमें एक मुख्य बात यह भी है कि जनप्रतिनिधि के दोशमुक्त होने के बाद भी उसे मौजूदा कार्यकाल में सीट नहीं मिल सकेगी। अगले कार्यकाल के लिए फिर चुनाव लड़कर सीट हासिल करनी होगी। मगर यदि सांसद या विधायक अपनी दोषसिद्धि उच्च न्यायालय से निलंबित करा देता है तो सदस्यता बरकरार रह सकती है, लेकिन यह बहुत ही कम मामलों में होता है।
देखा जाए तो इस आदेश का असर राष्ट्रीय पार्टियों पर कम और क्षेत्रीय दलों पर सबसे ज्यादा होने वाला है क्योंकि क्षेत्रीय दलों के कई नेताओं पर गंभीर आरोप लगे हुए हैं। इतना ही नहीं इनमें से कुछ को अदालत से दो साल से ज्यादा की सजा भी हो चुकी है पर अपील के जरिए वह अपनी कुर्सी को बचाए हुए हैं। संसद की ही बात करें तो, लोकसभा में 30 प्रतिशत सदस्य तो राज्यसभा में 17 प्रतिशत सदस्य दागी हैं। पार्टी के आधार पर देखें तो झामुमो 82 प्रतिशत के साथ प्रथम पायदान पर है वहीं कांग्रेस पांचवें स्थान पर। जबकि दूसरे, तीसरे, चौथे स्थान पर क्रमशः सपा (48 प्रतिशत), बसपा (34 प्रतिशत) व भाजपा (31 प्रतिशत) हैं।
हाल ही में एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने आंकड़े जारी कर कहा कि 2004 के बाद संसदीय और विधानसभा चुनाव लड़ने वाले 62,847 उम्मीदवारों में से 11,063 (18 फीसदी) ने अपने ऊपर आपराधिक मामले चलने के बारे में घोषणा की थी। इनमें से 8,790 सांसद और विधायक बने जिसमें 2575 पर आपराधिक और 1187 पर संगीन आपराधिक मामले हैं।
इस फैसले के बाद राजनीतिज्ञों में हलचलों को देखते हुए यह स्पष्ट हो गया है कि अदालत के फैसले से राजनीतिक पार्टियां सहमत नहीं हैं जिसमें लगभग सभी दलों ने इसके दुरुपयोग होने की आशंका जताई है। जबकि शुरूआती दौर में लगभग सभी दलों ने इस फैसले का भीतरी मन से स्वागत किया था। ऐसे में माना जा रहा है कि राजनीतिक दल दो साल या इससे अधिक की सजा पाए सांसदों व विधायकों को सीट गंवाने का खतरा उठाने से बचेंगे और सीट निकालने वाले दलों के रिश्तेदारों को तवज्जो देने पर पार्टियां विचार करेगी जिससे कि उनके दलों की सीटों को 5 साल तक बचाकर रखा जा सके।
वहीं एक अन्य फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने जेल में बंद या हिरासत में लिए गए व्यक्ति को चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य करार दिया है। सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि ‘‘जब जेल में बंद व्यक्ति वोट देने योग्य नहीं है तो वह उम्मीदवार कैसे बन सकता है। चुनाव लड़ने के लिए व्यक्ति का पहला वोट देने योग्य होना जरूरी है।’’
उपर्युक्त फैसलों से यह भी सवाल उठने लगे हैं कि अगर राजनीतिक द्वेष के चलते फर्जी मामले में किसी को जेल में डाल दिया जाता है। बाद में उसे अदालत के जमानत देने के दौरान नामांकन दाखिल करने की तिथि समाप्त हो जाती है क्या होगा? लेकिन किसी भी सूरत में ईमानदार व निर्दोष नेताओं को इससे नुकसान न हो, अन्यथा राजनीति की हालत और भी दयनीय होने की आशंका है। वास्तव में दोनों ही फैसले राजनीतिक दलों के लिए जोर का झटका है। ज्ञात हो कि लोकसभा चुनाव सहित कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, ऐसे में राजनीतिक दल पशोपेश में हैं कि आखिर इसका तोड़ कैसे निकाले। वैसे आगामी दिनों में यह बात साफ हो जाएगी कि सुप्रीम कोर्ट के उपर्युक्त दोनों फैसले सरकार व चुनाव आयोग किस प्रकार लागू करने में सफल रहती है और उसका क्या परिणाम निकलता है। साथ ही राजनीतिक पार्टियां इन फैसलों को लेकर क्या रूख अपनाती है?
आखिर जो भी हो जनता के हित की बात करें तो यह आदेश वास्तव में काफी सकारात्मक है और इसके लिए जनता सुप्रीम कोर्ट का तहे दिल से शुक्रगुजार था कि शायद इससे भारत की राजनीति का कुछ भला हो जाए। लेकिन इसी बीच माननीयों ने इसका तोड़ निकाल लिया और सर्वदलीय बैठक में सभी नेताओं ने एकसाथ तय कर लिया कि संसद में संविधान में संसोधन करके सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का तोड़ निकाला जाए।
चूंकि कोर्ट ने यह आदेश लिली थामस, चुनाव आयोग, लोकप्रहरी और बसंत कुमार चौधरी की जनहित याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान दिया। इसमें एक मुख्य बात यह भी है कि जनप्रतिनिधि के दोशमुक्त होने के बाद भी उसे मौजूदा कार्यकाल में सीट नहीं मिल सकेगी। अगले कार्यकाल के लिए फिर चुनाव लड़कर सीट हासिल करनी होगी। मगर यदि सांसद या विधायक अपनी दोषसिद्धि उच्च न्यायालय से निलंबित करा देता है तो सदस्यता बरकरार रह सकती है, लेकिन यह बहुत ही कम मामलों में होता है।
देखा जाए तो इस आदेश का असर राष्ट्रीय पार्टियों पर कम और क्षेत्रीय दलों पर सबसे ज्यादा होने वाला है क्योंकि क्षेत्रीय दलों के कई नेताओं पर गंभीर आरोप लगे हुए हैं। इतना ही नहीं इनमें से कुछ को अदालत से दो साल से ज्यादा की सजा भी हो चुकी है पर अपील के जरिए वह अपनी कुर्सी को बचाए हुए हैं। संसद की ही बात करें तो, लोकसभा में 30 प्रतिशत सदस्य तो राज्यसभा में 17 प्रतिशत सदस्य दागी हैं। पार्टी के आधार पर देखें तो झामुमो 82 प्रतिशत के साथ प्रथम पायदान पर है वहीं कांग्रेस पांचवें स्थान पर। जबकि दूसरे, तीसरे, चौथे स्थान पर क्रमशः सपा (48 प्रतिशत), बसपा (34 प्रतिशत) व भाजपा (31 प्रतिशत) हैं।
हाल ही में एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने आंकड़े जारी कर कहा कि 2004 के बाद संसदीय और विधानसभा चुनाव लड़ने वाले 62,847 उम्मीदवारों में से 11,063 (18 फीसदी) ने अपने ऊपर आपराधिक मामले चलने के बारे में घोषणा की थी। इनमें से 8,790 सांसद और विधायक बने जिसमें 2575 पर आपराधिक और 1187 पर संगीन आपराधिक मामले हैं।
इस फैसले के बाद राजनीतिज्ञों में हलचलों को देखते हुए यह स्पष्ट हो गया है कि अदालत के फैसले से राजनीतिक पार्टियां सहमत नहीं हैं जिसमें लगभग सभी दलों ने इसके दुरुपयोग होने की आशंका जताई है। जबकि शुरूआती दौर में लगभग सभी दलों ने इस फैसले का भीतरी मन से स्वागत किया था। ऐसे में माना जा रहा है कि राजनीतिक दल दो साल या इससे अधिक की सजा पाए सांसदों व विधायकों को सीट गंवाने का खतरा उठाने से बचेंगे और सीट निकालने वाले दलों के रिश्तेदारों को तवज्जो देने पर पार्टियां विचार करेगी जिससे कि उनके दलों की सीटों को 5 साल तक बचाकर रखा जा सके।
वहीं एक अन्य फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने जेल में बंद या हिरासत में लिए गए व्यक्ति को चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य करार दिया है। सुप्रीम कोर्ट का मानना है कि ‘‘जब जेल में बंद व्यक्ति वोट देने योग्य नहीं है तो वह उम्मीदवार कैसे बन सकता है। चुनाव लड़ने के लिए व्यक्ति का पहला वोट देने योग्य होना जरूरी है।’’
उपर्युक्त फैसलों से यह भी सवाल उठने लगे हैं कि अगर राजनीतिक द्वेष के चलते फर्जी मामले में किसी को जेल में डाल दिया जाता है। बाद में उसे अदालत के जमानत देने के दौरान नामांकन दाखिल करने की तिथि समाप्त हो जाती है क्या होगा? लेकिन किसी भी सूरत में ईमानदार व निर्दोष नेताओं को इससे नुकसान न हो, अन्यथा राजनीति की हालत और भी दयनीय होने की आशंका है। वास्तव में दोनों ही फैसले राजनीतिक दलों के लिए जोर का झटका है। ज्ञात हो कि लोकसभा चुनाव सहित कई राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, ऐसे में राजनीतिक दल पशोपेश में हैं कि आखिर इसका तोड़ कैसे निकाले। वैसे आगामी दिनों में यह बात साफ हो जाएगी कि सुप्रीम कोर्ट के उपर्युक्त दोनों फैसले सरकार व चुनाव आयोग किस प्रकार लागू करने में सफल रहती है और उसका क्या परिणाम निकलता है। साथ ही राजनीतिक पार्टियां इन फैसलों को लेकर क्या रूख अपनाती है?
आखिर जो भी हो जनता के हित की बात करें तो यह आदेश वास्तव में काफी सकारात्मक है और इसके लिए जनता सुप्रीम कोर्ट का तहे दिल से शुक्रगुजार था कि शायद इससे भारत की राजनीति का कुछ भला हो जाए। लेकिन इसी बीच माननीयों ने इसका तोड़ निकाल लिया और सर्वदलीय बैठक में सभी नेताओं ने एकसाथ तय कर लिया कि संसद में संविधान में संसोधन करके सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का तोड़ निकाला जाए।
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