Garibon se Bahut ho gaya Majak, Ab to Bakhsha do!
गरीबों से बहुत
हो गया
मजाक, अब
तो बख्श
दो !
नेताओं की बेतुकी
बातों को
मानें तो
जनता 1 रूपए
से लेकर
12 रूपए तक
में अपना
पेट एक
दिन में
भर सकती
है। कांग्रेस
नेता ने
कहा कि
मुंबई में
12 रूपए में
पेट भर
खाना खाया
जा सकता
है तो
दूसरे कांग्रेसी
नेता रशीद
मसूद ने
बयान दिया
कि पांच
रूपए में
भरपेट खाना
खाया जा
सकता है।
वहीं केंद्रीय
मंत्री फारूक
अब्दुल्ला ने तो हद ही
कर दी,
इनका मानना
था कि
‘‘अगर आप
चाहते हैं
तो अपना
पेट भर
सकते हैं।
चाहे एक
रूपए में
या सौ
रूपए में।
ये आप
पर निर्भर
करता है
कि आप
क्या खाकर
पेट भरते
हैं।’’ हालांकि
कांग्रेस ने
अपने नेताओं
के बयान
से किनारा
कर लिया।
सवाल उठता
है कि
आखिर गरीब
ही मजाक
उड़ाने के
लिए रह
गया क्या?
जब मर्जी
तब उसकी
पगड़ी उछाल
डालो।
23 जुलाई को योजना आयोग ने गरीबी की नई परिभाशा जारी करते हुए कहा कि सिर्फ उन लोगों को गरीब माना जाएगा, जिनका महीने का खर्च गांव मंे 816 रूपए और शहर में 1000 रूपए से कम है। इसी पैमाने पर आयोग ने दावा किया कि 2004-05 में गरीबी 37.2 थी, जो 2011-12 में घटकर 21.9 प्रतिशत रह गई। साथ ही यह भी कहा गया कि पांच लोगों का परिवार अगर ग्रामीण इलाके में 4,080 रूपए मासिक और शहरी क्षेत्र में 5000 रूपए मासिक खर्च करता है तो वह गरीबी रेखा में नहीं आएगा। यहां यह उल्लेखनीय है कि जहां 1962 में योजना आयोग द्वारा नियुक्त अर्थशास्त्रियों के एक कार्यकारी समूह ने ग्रामीण क्षेत्रों में रूपये 20 प्रतिदिन खर्च कर सकने वालों को गरीबी रेखा की परिधि से बाहर माना था।
इस नयी परिभाषा ने एक बार फिर से विवाद को जन्म दे दिया है। यहां हम आपको बता दें कि गरीबी की संख्या को लेकर केंद्र और राज्यों के बीच लंबे अर्से से रगड़ा रहा है। केंद्र का मानना है कि देश में सिर्फ 6.5 करोड़ परिवार ही गरीबी रेखा के नीचे है जबकि राज्यों का कहना है कि पूरे देश में गरीब परिवार 11.11 करोड़ है। इन बातों को चुनौती देते हुए केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि ‘‘पांच लोगों का परिवार 5000 रूपए मासिक की आय में गुजारा नहीं कर सकता। और यदि योजना आयोग ने कहा है कि कोई परिवार 5000 रूपए मासिक से अधिक की आय पर गुजारा कर रहा है तो वो गरीब नहीं है, तो निश्चित तौर पर इस देश में गरीबी की परिभाषा में कुछ गलती है।’’ वहीं योजना आयोग की नयी परिभाषा से सरकार ने भी यह कहते हुए पीछा छुड़ा लिया कि ‘‘सरकार ने कोई गरीबी रेखा तय नहीं की है। यह सिफारिश तेंदुलकर की अध्यक्षता वाले विशेषज्ञ समूह ने की है। सरकार ने न तो इसे स्वीकार किया है और न ही इसे तय किया है।’’
हम सभी जानते हैं कि गरीबी का सीधे-सीधे ताल्लुक सबसे पहले भोजन से होता है। ऐसे लोगों की भी संख्या काफी अधिक है जिन्हें दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं हो पाती और इस वजह से प्रत्येक वर्ष हजारों लोग काल के गाल समा जाते हैं। ऐसे लोगों की तादाद भी काफी है जिन्हें पूरा का पूरा दिहाड़ी से भी दो वक्त की रोटी पूरा नहीं हो पाता। जिसका सीधा और साफ कारण है देश में बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी।
ज्ञात हो कि करीब 11 वर्ष पहले, सुप्रीम कोर्ट में पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज ने सभी नागरिकों के लिए भोजन के अधिकार को लागू करने की मांग की थी। मामला गंभीर तब हो चला, जब याचिका दायर करने वालों ने देश में अनाज के सड़ने के सुबूत पेश किए। उन्होंने कोर्ट से कहा कि भंडार में रखे अनाजों को 150 सबसे गरीब जिलों में बांटा जा सकता है। सरकार ने सुझाव का विरोध किया कि रियायती भोजन सिर्फ गरीब परिवारों के लिए है, न कि गरीब जिलों के लिए। तब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से प्रश्न किया कि देश में गरीब लोगों का आकलन कैसे होता है? योजना आयोग का जवाब आया कि तेंदुलकर कमेटी की सिफारिश के आधार पर शहरी इलाकों में 32 रूपए प्रतिदिन से अधिक खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है। ग्रामीण इलाकों के लिए यह राशि 26 रूपए बताई गई। इसी बीच खाद्य पदार्थों की कीमतों में ही 17 प्रतिशत का इजाफा हो चुका है। ऐसे में यह परिभाषा देश में किसी के गले के नीचे से नहीं उतर रही है।
महंगाई के लगातार बढ़ते रहने से सामाजिक संतुलन और विकास के लक्ष्य तो गड़बड़ाते ही हैं साथ ही कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ने की भी आशंका बनी रहती है। जिस गति से समाज में जनचेतना का विस्तार और प्रसार हुआ है, उसके समानांतर राजनीतिक दलों का जनपक्षीय मुखौटा उजागर होने लगा है। महंगाई की मार से एक ओर आमजन त्रस्त है तो दूसरी ओर सरकार लाचार है। ऊपर से योजना आयोग का गरीबी की नयी परिभाषा जनता के गुस्से को बढाने में आग में घी का काम कर रही है। वास्तव में देखा जाए तो गरीबी की नयी परिभाषा गरीबों पर ठहाका लगाती नजर आ रही है। आखिर इस तरह से गरीब तबकों का मजाक क्यों? अगर आप गरीब को भी गरीब का दर्जा नहीं देना चाहते तो कम से कम उसकी गरीबी का मजाक तो मत उड़ाइये जनाब! साहेब, गरीबों से बहुत हो गया मजाक, अब तो बख्श दो!
23 जुलाई को योजना आयोग ने गरीबी की नई परिभाशा जारी करते हुए कहा कि सिर्फ उन लोगों को गरीब माना जाएगा, जिनका महीने का खर्च गांव मंे 816 रूपए और शहर में 1000 रूपए से कम है। इसी पैमाने पर आयोग ने दावा किया कि 2004-05 में गरीबी 37.2 थी, जो 2011-12 में घटकर 21.9 प्रतिशत रह गई। साथ ही यह भी कहा गया कि पांच लोगों का परिवार अगर ग्रामीण इलाके में 4,080 रूपए मासिक और शहरी क्षेत्र में 5000 रूपए मासिक खर्च करता है तो वह गरीबी रेखा में नहीं आएगा। यहां यह उल्लेखनीय है कि जहां 1962 में योजना आयोग द्वारा नियुक्त अर्थशास्त्रियों के एक कार्यकारी समूह ने ग्रामीण क्षेत्रों में रूपये 20 प्रतिदिन खर्च कर सकने वालों को गरीबी रेखा की परिधि से बाहर माना था।
इस नयी परिभाषा ने एक बार फिर से विवाद को जन्म दे दिया है। यहां हम आपको बता दें कि गरीबी की संख्या को लेकर केंद्र और राज्यों के बीच लंबे अर्से से रगड़ा रहा है। केंद्र का मानना है कि देश में सिर्फ 6.5 करोड़ परिवार ही गरीबी रेखा के नीचे है जबकि राज्यों का कहना है कि पूरे देश में गरीब परिवार 11.11 करोड़ है। इन बातों को चुनौती देते हुए केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि ‘‘पांच लोगों का परिवार 5000 रूपए मासिक की आय में गुजारा नहीं कर सकता। और यदि योजना आयोग ने कहा है कि कोई परिवार 5000 रूपए मासिक से अधिक की आय पर गुजारा कर रहा है तो वो गरीब नहीं है, तो निश्चित तौर पर इस देश में गरीबी की परिभाषा में कुछ गलती है।’’ वहीं योजना आयोग की नयी परिभाषा से सरकार ने भी यह कहते हुए पीछा छुड़ा लिया कि ‘‘सरकार ने कोई गरीबी रेखा तय नहीं की है। यह सिफारिश तेंदुलकर की अध्यक्षता वाले विशेषज्ञ समूह ने की है। सरकार ने न तो इसे स्वीकार किया है और न ही इसे तय किया है।’’
हम सभी जानते हैं कि गरीबी का सीधे-सीधे ताल्लुक सबसे पहले भोजन से होता है। ऐसे लोगों की भी संख्या काफी अधिक है जिन्हें दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं हो पाती और इस वजह से प्रत्येक वर्ष हजारों लोग काल के गाल समा जाते हैं। ऐसे लोगों की तादाद भी काफी है जिन्हें पूरा का पूरा दिहाड़ी से भी दो वक्त की रोटी पूरा नहीं हो पाता। जिसका सीधा और साफ कारण है देश में बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी।
ज्ञात हो कि करीब 11 वर्ष पहले, सुप्रीम कोर्ट में पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज ने सभी नागरिकों के लिए भोजन के अधिकार को लागू करने की मांग की थी। मामला गंभीर तब हो चला, जब याचिका दायर करने वालों ने देश में अनाज के सड़ने के सुबूत पेश किए। उन्होंने कोर्ट से कहा कि भंडार में रखे अनाजों को 150 सबसे गरीब जिलों में बांटा जा सकता है। सरकार ने सुझाव का विरोध किया कि रियायती भोजन सिर्फ गरीब परिवारों के लिए है, न कि गरीब जिलों के लिए। तब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से प्रश्न किया कि देश में गरीब लोगों का आकलन कैसे होता है? योजना आयोग का जवाब आया कि तेंदुलकर कमेटी की सिफारिश के आधार पर शहरी इलाकों में 32 रूपए प्रतिदिन से अधिक खर्च करने वाला व्यक्ति गरीब नहीं है। ग्रामीण इलाकों के लिए यह राशि 26 रूपए बताई गई। इसी बीच खाद्य पदार्थों की कीमतों में ही 17 प्रतिशत का इजाफा हो चुका है। ऐसे में यह परिभाषा देश में किसी के गले के नीचे से नहीं उतर रही है।
महंगाई के लगातार बढ़ते रहने से सामाजिक संतुलन और विकास के लक्ष्य तो गड़बड़ाते ही हैं साथ ही कानून-व्यवस्था की स्थिति बिगड़ने की भी आशंका बनी रहती है। जिस गति से समाज में जनचेतना का विस्तार और प्रसार हुआ है, उसके समानांतर राजनीतिक दलों का जनपक्षीय मुखौटा उजागर होने लगा है। महंगाई की मार से एक ओर आमजन त्रस्त है तो दूसरी ओर सरकार लाचार है। ऊपर से योजना आयोग का गरीबी की नयी परिभाषा जनता के गुस्से को बढाने में आग में घी का काम कर रही है। वास्तव में देखा जाए तो गरीबी की नयी परिभाषा गरीबों पर ठहाका लगाती नजर आ रही है। आखिर इस तरह से गरीब तबकों का मजाक क्यों? अगर आप गरीब को भी गरीब का दर्जा नहीं देना चाहते तो कम से कम उसकी गरीबी का मजाक तो मत उड़ाइये जनाब! साहेब, गरीबों से बहुत हो गया मजाक, अब तो बख्श दो!
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