BHARI PAR SAKTI HAI PURVANCHALI PRATINIDHITWA KI ANDEKHI
भारी पड़ सकती है पूर्वांचली प्रतिनिधित्व की अनदेखी
निर्भय कुमार कर्ण
दिल्ली में 1.23 करोड़ कुल मतदाताओं में से करीब 35 लाख मतदाता पूर्वांचल के हैं। वैसे तो पूर्वांचली लोगों की उपस्थिति तो दिल्ली के कोने-कोने में पसरी पड़ी है जो विषाल वोट के सहारे अपनी राजनीतिक साख की वजह से दिल्ली की राजनीतिक तस्वीर बनाने और बिगाड़ने का माद्दा रखती है। ये सात में से चार लोकसभा और दो दर्जन से ज्यादा विधानसभा सीटों पर निर्णायक भूमिका में होते हैं। यानि की 70 विधानसभा सीटों में से 40 सीटों पर पूर्वांचली वोटों का दबदबा होता है। समय-दर-समय भाजपा और कांग्रेस के बीच मतों का अंतर कम होता गया। 2008 में यह अंतर तीन फीसदी तक जा पहुंचा। मतों कें अंतर में तेजी से फिसलन की वजह से भी पूर्वांचली वोटर की अहमियत सभी दलों के लिए बहुत बढ़ गई है। इस बार भाजपा-कांग्रेस के अलावा ‘आप’ पार्टी भी पूरे दम-खम से दिल्ली विधानसभा चुनावों के लिए तैयारी कर रही है। ऐसा माना जा रहा है कि केजरीवाल कुछ करें या ना करें लेकिन उन्हें जो वोट मिलेगें, वह भाजपा के लिए खतरे की घंटी है। ऐसे मंे भाजपा के समक्ष चुनौतियां बढ़ती ही जा रही है। उभरते हुए ऐसे तस्वीर के बावजूद नगर निगम चुनाव में भाजपा को सत्ता तक पहुंचाने में पूर्वांचलियोें की भूमिका को देखते हुए भी इनके प्रतिनिधित्व की अनदेखी, आष्चर्यजनक है।
आगामी दिल्ली विधानसभा का चुनाव इसी वर्श के अंत तक होने हैं, ऐसे में भाजपा-कांग्रेस पूर्वांचली को रिझाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती, खासकर लंबे समय से विपक्ष में बैठी भाजपा किसी हालत में सत्ता का स्वाद चखना चाहती है। अनुभव इस बात का गवाह है कि दिल्ली मंे पूर्वांचलियों ने जिस पार्टी का साथ दिया, वह सत्ता पर काबिज होती रही है, चाहे वह नगर निगम का चुनाव हो या फिर विधानसभा या लोकसभा चुनाव। बीजेपी को पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनावों में बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा था। लोकसभा चुनाव में तो बीजेपी दिल्ली में खाता भी नहीं खोल पायी थी और सभी सातों सीटें भारी मतों से कांग्रेस ने जीत ली। उस अप्रत्याषित पराजय का एक प्रमुख कारण था पूर्वांचलियों की भारी नाराजगी क्योंकि भाजपा उन्हें टिकट देने में नाकाम रही थी। उसके विपरीत कांग्रेस ने पूर्वांचलवासियों पर दांव लगाया और अंततः सफल भी रही। षीला दीक्षित सार्वजनिक मंच से कई बार इस बात की पुश्टि कर चुकी है कि पूर्वांचली के वजह से ही दिल्ली में वह लगातार तीन बार मुख्यमंत्री बनने का इतिहास रचा है। इसके बावजूद पूर्वांचली को ना तो पार्टी मंे और ना ही सदन में समुचित प्रतिनिधित्व मिला, यह अपने आप में एक अनसुलझी पहेली है।
पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा के एक के मुकाबले कांग्रेस ने पूर्वांचल के दो लोगों को टिकट दिया। जिसमंे भाजपा से अनिल झा और कांग्रेस के महाबल मिश्रा ने चुनाव जीता जबकि कांगे्रस के आमोद कंठ हार गये। आमोद कंठ के चुनाव हारने के बावजूद भी सरकार ने उनको तवज्जो देते हुए सरकार में रखा। उसके बाद अगले साल ही यानि की 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने महाबल मिश्रा को पष्चिमी दिल्ली से चुनावी मैदान में उतारा जिसमें आंदोलित व उत्साहित पूर्वांचली मतदाता की वजह से वे विजयी भी रहे। जानकार मानते हैं कि जिस पार्टी से पूर्वांचली को टिकट मिलता है पूर्वांचली मतदाताओं का झुकाव भी उसी पार्टी की ओर हो जाता है।
सभी पार्टियां इस सत्य को स्वीकार करती है कि किसी पार्टी की रैली या धरना-प्रदर्षन तभी सफल हो पाता है जब उसमें पूर्वांचल के लोगों की भीड़ इकट्ठी होती है। हाल ही में दिल्ली के रामलीला मैदान में हुए नीतीष की ऐतिहासिक रैली इसका जीता-जागता उदाहरण है। रामलीला मैदान पूर्वांचलियों से अटा पड़ा था, जिसने नीतीष की रैली को सफल बनाने में अहम भूमिका अदा की।
2012 में हुए दिल्ली नगर निगम चुनाव में बीजेपी 23 पूर्वांचली उम्मीदवार को मैदान में उतारा जबकि पूर्वांचल प्रकोश्ठ ने 100सीटों पर दावेदारी रखी थी, जबकि कांग्रेस ने महज चार सीटें देकर पूर्वांचलियों को लुभाने का कोषिष की जिसका खामियाजा सबके सामने है यानि की कांग्रेस नगर निगम चुनाव को बुरे तरीके से हार गई। तस्वीर साफ है कि पार्टियांे की उपेक्षा के दंष को पूर्वांचली नहीं पचा सके और विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों से अपना निर्दलीय प्रत्याषी उतारकर भरपूर समर्थन दिया जिसका परिणाम सामने है, उनमें से कई प्रत्याषी जीते और कई प्रत्याषी जीत के काफी करीब रहे और वो भी तब जब उन्हें प्रमुख पार्टियों के साजिषों का षिकार होना पड़ा। इस प्रकार पूर्वांचली प्रत्याषी और जनता ने मिलकर प्रमुख पार्टियों को आईना दिखाया। समुचित प्रतिनिधित्व ना देने से दोनो प्रमुख पार्टियों से ये मतदाता बुझे-बुझे से हैं। उन्हें अब यह चिंता सताने लगी है कि इसी तरह से चलता रहा तो हमारी पीढ़ी की बातें सुनने वाला कोई नहीं रह जाएगा, जबकि हमारे वोट से ही ये पार्टियां सत्ता का स्वाद चख पाती है। इनका मानना है कि अब वो समय आ गया है कि उन्हें उनकी आबादी के अनुसार पार्टी में प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए जिससे कि वे अपने क्षेत्रवासियों के मुद्दों को जोड़ सके और सदन तक मजबूती से रख सके। सभी पार्टियों ने अपने फायदे के लिए पूर्वांचली को काफी रिझाया तो लेकिन लाभ व अवसर देने से हमेषा ही मुकरते रहे। इसलिए अब केवल इन्हें रिझाने से काम नहीं चलेगा बल्कि उनके वाजिब मांग को ध्यान में रखते हुए उनके मुर्झाये चेहरे को खिलाना होगा। कयास ये भी लगाए जा रहे हैं कि यदि पूर्वांचली को समुचित प्रतिनिधित्व विधानसभा चुनाव में ना मिला तो ऐसा ना हो कि इस बार पूर्वांचलियों का वोटबैंक खिसककर तीसरी पार्टी के रूप में उभर रही ‘आप’ पार्टी या जदयू एवं अन्य छोटे दलों के खाते में चला जाए।
पूर्वांचली वोटों की बढ़ती अहमियत को देखते हुए किसी भी पार्टी के लिए इनके प्रतिनिधित्व की अनदेखी भारी पर सकता है। जिस तरह से भाजपा की छटपटाहट सत्ता के प्रति दिख रही है और यह छटपटाहट तब दूर हो पाएगी जब वे पूर्वांचली की बेचैनी को दूर कर सके। ऐसे में यदि भाजपा के प्रति इन मतदाताओं का मन भटका या नाराजगी जारी रहा, तो यह कहना अतिष्योक्ति नहीं होगी की भाजपा को फिर से दिल्ली की सत्ता पर काबिज होने में पांच साल का और लंबा वक्त तय करना पड़ सकता है।
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