Mahilaon ke liye Nirnayak Varsh '2014' ( On International Women Day- 8 March)
(8 मार्च- अंतर्राष्ट्रीय महिला
दिवस पर विशेष)
महिलाओं के लिए निर्णायक वर्ष ‘2014’
निर्भय कर्ण
भारत समेत 41 देशों में राष्ट्रीय चुनाव वर्ष 2014 में होने जा रहे हैं जिसमें विश्व की 42 फीसदी आबादी बसती है। महिलाएं यानि की आधी आबादी का चुनाव में महत्वपूर्ण योगदान होता है इसलिए यह वर्ष आधी आबादी की मुट्ठी में है जो दुनिया की रूपरेखा तय करेगी अर्थात् यह वर्ष महिलाओं के लिए निर्णायक साबित होने जा रहा है। महिलाओं को आधी आबादी नाम से भी संबोधित किया जाता है लेकिन क्या सभी अधिकारों में आधे की अधिकारी महिलाओं को अपना आधा अधिकार मिल पाता है?
विश्व में कुल जनसंख्या का महिलाओं की आबादी 48 प्रतिशत है। जहां विश्व स्तर पर महिला सांसद की संख्या कुल सांसदों का मात्र 21.4 प्रतिशत है वहीं एशिया में इसका प्रतिशत 17.7 है। राजनीति में महिलाओं की भागीदारी में इजाफा की बात करें तो कुछ हद तक दिल को सुकून मिलेगा। 1945-95 के दौरान विश्व स्तर पर महिला सांसदों की संख्या में 4 गुना इजाफा हुआ है। भारत में चार महीने तक चले पहले आम चुनाव के बाद 3 अप्रैल को पहली राज्यसभा और 17 अप्रैल 1952 को लोकसभा का गठन हुआ था जिसमें दोनों सदनों में कुल मिलाकर 20 महिला सदस्य थी। लेकिन आज लोकसभा और राज्यसभा में महिलाओं की मौजूदगी क्रमशः 60 और 26 है। देखा जाए तो 1995 से 2012 के बीच राजनीति में महिलाओं की संख्या में 75 प्रतिशत इजाफा हुआ है परंतु भारत सहित पूरे एशिया में उस अनुपात में इजाफा नहीं हो पाया। अंतर संसदीय संघ के आंकड़ों के अनुसार, संसद में महिला प्रतिनिधियों की संख्या के संदर्भ में रवांडा प्रथम स्थान पर तो भारत 108वें स्थान पर है। जबकि हमारे पड़ोसी देश इस मामले में बेहतर स्थिति में हैं। चीन 56वें, पाकिस्तान 66वें तो बांग्लादेश 71वें पायदान पर है।
घर की चारदीवारी से लेकर बाहर के खुले आसमां तक महिलाओं का योगदान अति महत्वपूर्ण माना जाता है। जहां घर में इनके योगदान को नकारा नहीं जा सकता वहीं बाहरी दुनिया में इनकी पहुंच सकारात्मक है। नेपाल की आर्थिक गतिविधियों में 42.07 प्रतिशत योगदान 10-14 साल के लड़के-लड़कियों का होता है जिसमें लगभग 60 प्रतिशत लड़कियां होती है। वर्ल्ड इकोनामिक फोरम, 2011 के आंकड़ों के अनुसार, देश की आर्थिक गतिविधियों में 31.2 प्रतिशत महिलाएं योगदान दे रही है जिसमें महिलाएं (97.2 प्रतिशत) पुरुषों (95.6 प्रतिशत) के मुकाबले अधिक संख्या में ज्यादा जिम्मेदारी के साथ आगे आना चाहती है। वहीं इस चुनावी वर्ष में लोकतंत्र में आबादी के अनुपात में महिला वोटरों की संख्या में काफी बढ़ोतरी हो रही है। भारतीय निर्वाचन आयोग द्वारा संशोधित मतदाता सूची (14 फरवरी, 2014) के अनुसार, देश की कुल मतदाता 814,591,184 में पुरुष और महिला मतदाताओं का प्रतिशत क्रमशः 52.4 व 47.6 है। हाल ही में हमने देखा कि 2013 के अंत में नेपाल में हुए चुनाव में महिलाओं की बढ़-चढ़कर भागीदारी ने इस चुनाव को न केवल सफल बनाया बल्कि एक स्थिर सरकार के मार्ग को भी प्रशस्त किया। यानि कि बीते दशकों में महिलाओं का रूझान लोकतंत्र में आश्चर्यजनक रूप से बढ़ा है लेकिन विगत् 60-65 सालों में महिला प्रतिनिधियों की संख्या में ठहराव चिंता का विषय है। इसके पीछे राजनीतिक दल यह तर्क देते हैं कि वे महिलाओं को चुनाव में खड़ा बहुत कम इसलिए करते हैं क्योंकि उनके जीतने की संभावनाएं कम होती है। लेकिन इसके पीछे एक और मानसिकता होती है कि जो महिलाएं ताकतवर व समाज में प्रसिद्ध है उसे ही उम्मीदवार बनाकर वह सीट जीता जा सकता है, अन्यथा नहीं। यदि इन बातों मे तनिक भी सच्चाई है तो महिलाओं को बराबर का दर्जा देने के लिए काफी कुछ करने की हमें जरूरत है। आधी आबादी को मजबूत करने की जरूरत है जिससे कि महिलाएं भी अधिक से अधिक सीट जीतकर इस भ्रम को दूर करने में सफल हो सकें।
स्विट्जरलैंड के गैर सरकारी विश्व आर्थिक मंच (डब्लूईएफ) द्वारा तैयार किए सूचकांक के अनुसार, स्त्रियों के राजनैतिक सशक्तिकरण के मामले में भारत जहां नौवें स्थान पर है वहीं स्वास्थ्य क्षेत्र में देश नीचे से दूसरे स्थान यानी 135वें स्थान पर है। आर्थिक भागीदारी और अवसर के लिहाज से भी भारत 124वें स्थान पर है। यदि इन पायदानों में सुधार करना है और वैश्विक स्तर पर महिलाओं की भागीदारी को सुनिश्चित करना है तो सबसे पहले जरूरी है महिलाओं के प्रति अपनी मानसिकता में सुधार लाएं। अभी भी हमारे समाज में महिलाओं को निरीह, लाचार व भोग्या वस्तु की दृष्टि से देखने की मानसिकता मजबूत गांठ के रूप में विद्यमान है। यही वजह है कि इस आधुनिक दुनिया में भी 60.30 करोड़ महिलाएं उस देश में निवास करती है जहां पर घरेलू हिंसा को अपराध माना ही नहीं जाता है। ऐसे देशों में रह रही महिलाओं की स्थिति का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है कि उन महिलाओें की जिंदगी कितनी दर्दनाक व नरकीय होगी।
अब समय आ गया है कि पुरुश प्रधान समाज नारियों को बराबर का दर्जा दे। अपनी रूढ़िवादी सोच को नवीनतम व सकारात्मक सोच में तब्दील कर महिलाओं को उचित सम्मान व बराबर की भागीदारी दे। अभिभावक बेटी को बेटे की तरजीह दे ताकि यही शिक्षा बेटी को उज्जवल भविष्य दे सके और परिवार को समाज में सम्मान। माता-पिता घर में बेटी को फैसला करने का हक दें, उसके हर निर्णय को गंभीरता से लें। इससे न सिर्फ बेटी में विश्वास जगेगा बल्कि उच्च स्तर पर भागीदारी भी बढ़ेगी और महिलाएं अपनी कार्यक्षमता के बदौलत लोकतंत्र को मजबूत करने में सकारात्मक भूमिका निभा पाएगी। सरकार को स्थानीय व राष्ट्रीय एक्शन योजनाओं को विकसित करने, पर्याप्त सार्वजनिक स्त्रोतों को उपलब्ध कराने, महिलाओं की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने व कानूनों को कड़ाई व ईमानदारी से पालन कराने पर जोर देने की नितांत आवश्यकता है।
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