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                                              20 फरवरी- विश्व सामाजिक न्याय दिवस
                                     न्याय पर हावी होता अन्याय?
निर्भय कर्ण

हाल ही में खबर आई थी कि उत्तर कोरिया के शासक किम जोंग उन ने दिसंबर 2013 में 120 भूखे कुत्ते छोड़कर फूफा जांग सांग की हत्या करवाई थी। इसके अलावा विश्व के कोने-कोने से बर्बरता क्रूरता की खबरें आती रहती है। एक पल के लिए माना कि फूफा जांग सांग ने भयंकर अपराध किया था, इसका मतलब यह नहीं कि मानवाधिकारों एवं इंसानियत की सारी हदों को पार कर उसे इतनी बर्बरता से मौत दी जाए। किसी भी शासक और व्यक्ति का ऐसा कृत्य घोर निंदनीय और अशोभनीय है। बदलती परिस्थिति में संयुक्त राष्ट्र द्वारा 20 फरवरी को घोषित विश्व सामाजिक न्याय दिवस मनाने की सार्थकता कितनी रह गई है? सवाल यह भी हमारे जेहन में उठता रहता है कि क्या न्याय पर अन्याय तो नहीं हावी हो रहा है?

किसी भी सभ्य समाज के लिए न्याय बेहद अहम होता है। न्याय समाज को कई बुराईयों और गैर-सामाजिक तत्तवों  दूर रखने के साथ लोगों के नैतिक और मानवाधिकारों की रक्षा करता है। समाज में किसी भी व्यक्ति का मानवाधिकार हनन हो और उसे उसका समुचित न्याय मिले, इसी उद्देश्य से प्रत्येक वर्ष 20 फरवरी को विश्व सामाजिक न्याय दिवस मनाने का फैसला संयुक्त राष्ट्र ने 2009 में लिया था। संयुक्त राष्ट्र महासचिव का मानना है कि यह दिवस राष्ट्रीय स्थिरता और वैश्विक समृद्धि के लिए आधार है। समान अवसर, एकजुटता और मानव अधिकारों का सम्मान, इस दिवस का उद्देश्य है।

विश्व पटल पर अन्याय के आंकड़ें भयावह हैं। नेपाल में 1996 से 2006 के दशक में हुए संघर्ष के दौरान 13 हजार लोगों की मौत हुई थी और लगभग 1300 अब भी लापता हैं। वहीं शरणार्थियों के लिए दुनिया खतरनाक होती जा रही है। मई, 2013 में एमनेस्टी इंटरनेशनल की जारी रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया संघर्षों को रोकने में नाकाम रही है जिससेवैश्विक निम्न वर्गकी उत्पत्ति हो रही है। दुनिया में विस्थापितों की संख्या 4.52 करोड़ है जिसमें  76 लाख लोग 2012 में संघर्षों की वजह से विस्थापित हुए जबकि 65 लाख लोग ऐसे हैं जो अपने ही देश में विस्थापित हुए। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि संघर्षों की वजह से अपना घर छोड़नेवालों के अधिकारों की रक्षा कोई नहीं करता है। इसके पीछे वे दिखावटी कानून हैं जिनका इस्तेमाल शरणार्थियों के हितों के लिए किया जाता है। जबकि छोटी-छोटी घटनाएं जैसे- संघर्ष, दंगा, गुटबाजी होना और उसमें लोगों की मौत हो जाना आम बात हो गई है।
दूसरी ओर, दासता की नजर में मानवाधिकारों के उल्लंघन की बात करें तो पर्थ आधारित वाक फ्री फाउंडेशन के द्वारा जारी सूचकांक के मुताबिक दुनिया में 2.98 करोड़ गुलाम हैं जिसमें भारत 1.39 करोड़ गुलामों के साथ चौथे स्थान पर है। आधुनिक गुलामी के अंतर्गत अधिकतम प्रसार वाले देश  में भारत चैथे नेपाल पांचवे स्थान पर है। यानि कि गुलामी की जिंदगी इस आधुनिक दौर में भी जारी है चाहे वो बंधुआ मजदूर या नौकर के रूप में हो या अन्य किस्म में। गरीबी और जाति प्रणाली जैसे मसलों की आधुनिक गुलामी को बनाए रखने में अहम भूमिका है। दलित आदिवासी समुदाय के लोग सबसे अधिक दासता के चंगुल में हैं जिसमें खासकर महिलाएं बच्चे इसकी चपेट में आते हैं। देखा जाए तो हम आधुनिक और तकनीकी से लैस माहौल में प्रगति कर रहे हैं लेकिन वास्तविकता यही है कि इतना आधुनिकता के बावजूद हमारी मानसिकता दिन प्रति दिन संकुचित होती जा रही है। दूसरों के प्रति घृणा-द्वेष की भावना, दूसरों को अपने से कमतर आंकने जैसी बढ़ती प्रवृत्ति हमारी एकजुटता के उद्देश्य हेतु खतरनाक है। ऐसे हालात में सभी को समान अवसर उपलब्ध कराना एक कठिन चुनौती है।

संयुक्त राष्ट्र  में लोगों या कैदियों को यातनाएं दिए जाने के विरोध में कई सारे प्रस्ताव और कानून पारित होते रहने के बावजूद आज भी दुनियाभर के तमाम देश मानवाधिकार का उल्लंघन करते रहते हैं। कहीं अपराधियों से सच उगलवाने के नाम पर तो कहीं नागरिकों को नियंत्रण में रखने के नाम पर तो कहीं कर्ज वसूलने के नाम पर बंधक या बंधुआ मजदूर बनाकर मानवाधिकार का उल्लंघन किया जाता रहता है। अपने दुश्मनों को बर्बरता-क्रूरता से सजा देना शासकों बलशालियों का शौक बनता जा रहा है। समाज में  व्याप्त भेदभाव, छोटी-छोटी बातों पर एक-दूसरे का खून का प्यासा हो जाने जैसी प्रवृत्ति हमेशा से ही न्याय को चुनौती देता रहा है।
आम जनता अपनी मूल जरूरतों के लिए न्याय प्रक्रिया को नहीं जानता जिसके अभाव में बार-बार उसके मानवाधिकारों का हनन होता है और उसे अपने अधिकारों से वंचित रहना पड़ता है। कानून की जानकारी दुनिया की आबादी की तुलना में नाममात्र लोगों को है और जब तक लोगों को अपने अधिकारों उसे प्राप्त करने का ज्ञान नहीं होगा तब तक लोगों को न्याय से वंचित होने की गुंजाइश बनी रहेगी। कानून की जानकारी सभी के लिए जरूरी है। अगर लोग अपने अधिकारों और देश के कानूनों को जानेंगे, तो निश्चित रूप से उनके हितों को चोट कम से कम पहुंचेगी और इससे इस दिवस के अन्य उद्देश्यों  को मजबूती मिलेगी। सभी को निराशा का दामन छोड़ कर अपने प्रति आशावान रहना चाहिए तथा अपने अधिकारों के प्रति सचेष्ट रह कर कानून का पूर्णतया पालन करना चाहिए। इसके साथ ही सामाजिक सामंजस्यता के साथ भाईचारा को बढ़ावा देते हुए एकजुट रहने की राह को प्रषस्त कर विश्व  सामाजिक न्याय दिवस की सार्थकता सिद्ध करना होगा। इसके पश्चात्  ही अन्याय न्याय पर नहीं बल्कि न्याय अन्याय पर विजयी होने में सफल हो पाएगा।



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