Shiksha ke bazarikarn se lupt ho raha guru-shishya Prem (On Teacher Day-5th September) - सुस्वागतम्
Buy Pixy Template blogger

Shiksha ke bazarikarn se lupt ho raha guru-shishya Prem (On Teacher Day-5th September)

(शिक्षक दिवस (5 सितंबर) के उपलक्ष्य में)
शिक्षा के बाजारीकरण से लुप्त हो रहा गुरू-शिष्य प्रेम

शिक्षक और छात्र के बीच प्रथम दृष्टतया अनुशासनात्मक संबंध होता है। शिक्षण व्यवस्था में शिक्षक और छात्र दोनों की अहम भूमिका है। दोनों आपस में एक गति और लय से आगे बढ़े, तभी विकास संभव है। देखा जाए तो जब तक अनुशासन परस्प

कायम रहता है तब तक शिक्षक और छात्र के बीच का संबंध प्रगाढ़ और मधूर बना रहता है जो दोनों के लिए आवश्यक है। लेकिन आधुनिक दौर में शिक्षक और छात्र के संबंध में काफी गिरावट चुकी है जो एक तरफ हमारी नैतिकता पर सवाल खड़ा करती है तो दूसरी ओर छात्र की गुणवत्ता खटाई में पड़ने लगी है।
कठोर अनुशासन के मामले में अतीत का उदाहरण शानदार रहा है जहां गलत कार्यों एवं अनुशासनहीनता के लिए बच्चों को दंडित किया जाता था जो बच्चों को गलत कार्यों को करने से रोकता था। यथार्थ यह कि शिक्षकों का बच्चों पर पकड़ संतुलित था लेकिन अब वही असंतुलन की ओर बढ़ चला है। अब यदि गलत कार्यों के लिए बच्चों को दंडित किया जाता है तो शिक्षकों को कानूनी कार्यवाही तक का सामना करना पड़ जाता है। इन कारणों से शिक्षक अपने आप को असहज महसूस करने लगे हैं। शिक्षक बच्चों को गलत कार्याें के लिए दंडित करने के बजाय हल्का समझाने-बुझाने में ही अपना भला समझने लगे हैं, इससे बच्चे और भी अनियंत्रित हो जाते है और शिक्षक के प्रति डर समाप्त होता चला जाता है और यही कदम उन्हें गलत रास्तों की ओर धकेलती है।

                वर्तमान में गुरू-शिष्यों में आश्चर्यजनक बदलाव हो रहे हैं। केवल छात्र बल्कि शिक्षक में भी निरंतर परिवर्तन आता चला गया। अपवाद स्वरूप ही, नाममात्र छात्र अपने शिक्षक को शिक्षक का दर्जा देता है और आदर करता है। अकसर यह सुनते होंगे कि अमूक छात्र ने अमूक शिक्षक के साथ मार-पीट की, अमूक छात्र ने अमूक शिक्षिका के साथ छेड़छाड़ की है, आदि। वहीं दूसरी ओर कुछ शिक्षकों की करतूत ने पूरे शिक्षा जगत को सन्न कर दिया है। ऐसे शिक्षक अपने बच्चों के समान छात्रा को हवस का शिकार बनाता है, छेड़खानी करता रहता है, वहीं अन्य भेदभाव तो जगजाहिर है। ऐसे हालात में शिक्षा और शिक्षक दोनों पर सवालिया निशान लगे हैं। इन हालातों के लिए जिम्मेदार कौन है, इन बातों पर ध्यान दें तो मालूम होता है कि तेजी से बदल रही परिस्थितियां इसके लिए जिम्मेदार है। फिल्मों, धारावाहिकों, गानों के जरिए अश्लीलता, हिंसा, द्धेष, ईर्ष्या को परोसा जा रहा है जो खतरनाक कारक हैं। नैतिकता का पतन चरम पर पहुंचने लगा है। सामाजिक, धार्मिक संकीर्णताओं से घिरा बच्चों का वातावरण अत्यधिक विषमताओं के कारण और भी संकटमय होता जा रहा है। हमारा समाज लगातार परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है जिसके कारण बच्चों पर से नियंत्रण ढ़ीला होता जा रहा है। अभिभावकों के पास अपने बच्चों के लिए समय का अभाव होता जा रहा हैै जिसकी पूर्ति वे पैसा से करना चाहते हैं। वे ज्यादा से ज्यादा संसा

धन अपने बच्चों को उपलब्ध करवा देते हैं लेकिन वे यह देख नहीं पाते कि बच्चा उसका उपयोग किस रूप में कर रहा है। वहीं आर्थिक अभाव में बड़े हो रहे बच्चे कम उम्र में ही मजदूरी करने लगते हैं जहां उनके हिंसक, शराबी हाने की संभावना सबसे ज्यादा होती है। ऐसे में वे जल्द से जल्द अपने अभावों को दूर करने और व्यसनों को पूरा करने के लिए अपराधों में लिप्त हो जाते हैं। इसका परिणाम है बच्चों का कम उम्र में हिंसक होना, गलत आदतों का शिकार होना, वयस्कों की भांति व्यवहार करना, आदि। आंकड़ों पर गौर करें तो 2013 में भारत में दर्ज कुल आईपीसी के मामलों की तुलना में नाबालिगों का मामला 1.2 प्रतिशत है। एक रिपोर्ट के अनुसार, 2012 में जहां 16 से 18 साल के बच्चों द्वारा किए गए हिंसात्मक घटनाओं की संख्या 6747 थी वहीं 2013 में बढ़कर 6854 हो गया है यानि ऐसी घटनााओं में 1.6 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। वहीं 2013 में नाबालिगों द्वारा किए गए 4085 यौन अपराधों के मामलों में 16 से 18 साल के नाबालिगों के मामले की संख्या 2838 है।
दूसरी ओर, शिक्षा के बाजारीकरण ने भी केवल शिक्षा को कठघरे में ला खड़ा कर दिया है जिसके कारण गुरू-शिष्य प्रेम भी गर्त की ओर जाता दिख रहा है। एक समय था जब गुरूकुल में छात्र पढ़ाई किया करते थे जहां शिक्षक को केवल संरक्षक बल्कि पिता से भी बढ़कर सम्मान दिया जाता था। शिक्षक भी शिष्य को केवल शिष्य का ही नहीं बल्कि पिता का भी प्यार देने से पीछे नहीं रहते। दोनों में इतना अटूट प्रेम होता था कि देखते ही बनती थी। राम-वशिष्ठ, कृष्ण-संदीपनी से लेकर चंद्रगुप्त मौर्य-चाणक्य और विवेकानंद-परमहंस तक शिष्य-गुरू की एक आदर्श परम्परा रही है। वहीं एकलव्य-द्रोणाचार्य का किस्सा अतीत का एक दंश है जिसमें गुरू का शिष्य के प्रति द्वेष झलकता है। एकलव्य गुरू द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर धनुर्विद्या स्वयं सीखी लेकिन द्रोणाचार्य ने गुरू दक्षिणा के रूप में उसके दाहिने हाथ का अंगूठा ही मांग लिया, वह भी अपने प्रिय शिष्य अर्जून के लिए जिसे कोई जीत सके। द्रोणाचार्य को डर था कि एकलव्य अर्जून को हराकर उससे आगे निकल जाएगा।
                देखा जाए तो आज अध्यापन निःस्वार्थ नहीं रहकर, एक व्यवसाय बनकर रह गया है। शिक्षक का संबंध भी एक उपभोक्ता और सेवा प्रदाता का होता जा रहा है। छात्रों के शिक्षा के लिए गुरूओं से प्राप्त होने वाला ज्ञान के बजाए, धन से खरीदी जानेवाली वस्तु मात्र बन कर रह गयी है। यह भी एक बड़ा कारण है जिससे शिष्य की गुरू के प्रति आदर और गुरू के प्रति छात्रों के प्रति स्नेह और संरक्षक भाव लुप्त होता जा रहा है। शिक्षक कोचिंग-स्कूलों में शिक्षा प्रदान करने को ही अपना कर्तव्य समझ बैठता है तो वहीं छात्र को लगता है कि उन्हें जो ज्ञान प्रदान की जा रही है, उसके बादले वह शिक्षकों को धन उपलब्ध कराता है और मेरा शिक्षक से संबंध बस स्कूल और ट्यूशन तक सीमित है और कुछ भी नहीं। छात्रों को यह ध्यान रखना होगा कि शिक्षा और शिक्षक के बीच धन से बड़ा अनुशासन-आदर का स्थान होता है जो छात्र की सफलता का महत्वपूर्ण घटक है। इन हालातों को रोकने के लिए शिक्षा का बाजारीकरण को संतुलित करना अति आवष्यक है। शिक्षक और छात्र दोनों को ही अपने अंतरात्मा में झांककर शिष्य-गुरू के बिगड़ते प्रेम को रोकना ही भविष्य के लिए हितकारी होगा।

Previous article
Next article

Leave Comments

Post a Comment

Articles Ads

Articles Ads 1

Articles Ads 2

Advertisement Ads